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ज्ञप्तिः
आचारांगस्य सप्तमं अध्ययनं महापरिज्ञानामकं विद्यते । इदानीं तन्नास्ति उपलब्धम् । तस्य लोपः कथं जातः, इत्यत्र अनुमानमेव कर्तुं शक्यम् । नाति किञ्चित् स्पष्टं प्रमाणम् । नियुक्तिवणितविषयवस्स्वाधारेण ज्ञायते तस्मिन् महती परिक्षा निरूपिता आसीत् ।' कालान्तरे सर्वशिष्येभ्यः तस्याः प्रदानं नोचितं प्रतीतम् । तेन तस्याध्ययनस्य पाठः विस्मृति नीतः। इत्यपि अनुश्रुतिविद्यते-महापरिज्ञाध्ययने अनेकासां विद्यानां निरूपणमासीत् । तासां दुरुपयोगो न स्याद् इति तस्य पाठः आचार्यैः प्रतिबंधितः । कालान्तरेण तस्य विलुप्तिः जाता। वस्तुतः नियुक्तिमतमेव वास्तविकं प्रतिभाति । आचारस्य केचिद् विषयाः बहुश्रुतैरेव अवगम्याः। तेषां ज्ञप्तिः सर्वसाधूनां कृते नोपयुक्ता इति चिन्तनपूर्वकं तस्य पठनपाठनपरंपरा अवरुद्धा समजनि ।
आचारांग के सातवें अध्ययन का नाम है 'महापरिज्ञा'। आज वह उपलब्ध नहीं है। उसका लोप कैसे हुआ, इसका अनुमान ही किया जा सकता है। इस विषय में कोई स्पष्ट प्रमाण प्राप्त नहीं है। नियुक्ति में वर्णित विषय-वस्तु के आधार पर यह ज्ञात होता है कि महापरिज्ञा अध्ययन में महान् परिज्ञा का निरूपण था। कालान्तर में सभी शिष्यों को उसका ज्ञान देना उचित प्रतीत नहीं हुआ। इसलिए उस अध्ययन का पाठ विस्मृत हो गया। यह भी अनुश्रुति है कि महापरिज्ञा अध्ययन में अनेक विद्याओं का निरूपण था। उनका दुरुपयोग न हो, इसलिए आचार्यों ने उसके पाठ को प्रतिबंधित कर दिया। कालान्तर में वह विलुप्त हो गया। वस्तुतः नियुक्ति का मत ही वास्तविक लगता है। आचार के कुछ विषय बहुश्रुत मुनियों के लिए ही जानने योग्य थे। उनकी जानकारी सभी साधुओं के लिए उपयुक्त नहीं है, इस चिन्तन के आधार पर उसके पठन-पाठन की परंपरा अवरुद्ध हो गई।
१. आचारांग नियुक्ति, गाथा २६९ :
पाहण्णण उ पगयं भावपरिग्णाए तह य दुविहाए। परिणाणेसु पहाणे महापरिष्णा तओ होइ॥
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