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________________ ३३२ आचारांगभाष्यम् अवमाननम् । ची वृत्ती च एतद् विस्तरेण प्रतिपादित- गुरुजनों के निरूपण की अवमानना । चणि और वृत्ति में इसका मस्ति । विस्तार से प्रतिपादन है । ७८. वसित्ता बंभचेरंसि आणं 'तं णो' त्ति मण्णमाणा। सं०-उषित्वा ब्रह्मचर्ये आज्ञा 'तां नो' इति मन्यमानाः । वे ब्रह्मचर्य में रह कर भी आचार्य की आज्ञा को 'यह तीर्थकर की आज्ञा नहीं है'-ऐसा मानते हैं। भाष्यम् ७८-ब्रह्मचर्यम्-चारित्रं' गुरुकुलवासो वा । ब्रह्मचर्य का अर्थ है- चारित्र अथवा गुरुकुलवास । आज्ञा का आज्ञा-तीर्थकरस्य वचनं सूत्रादेशो वा। ते ब्रह्मचर्ये अर्थ है- तीर्थंकर का वचन अथवा सूत्र का आदेश । वे शिष्य ब्रह्मचर्य उषित्वापि पारुष्यं समाददत: उद्दण्डभावेन आज्ञां नो में रह कर भी परुषता का आचरण करते हुए उइंडता से आज्ञा इति मन्यन्ते। सातगौरवबहुलाः शरीरस्य विभूषां को 'यह तीर्थंकर की आज्ञा नहीं है' ऐसा मानते हैं। सात-गौरव कुर्वन्ति, न च भिक्षाचर्यायां हिण्डन्ते । रसगौरवबहुलाः की बहुलता के कारण वे शरीर की विभूषा करते हैं, भिक्षाचर्या के सन्तस्ते नाहारशुद्धिं कुर्वन्ति । अपरैः प्रेरिताः सन्तः लिए नहीं घूमते । वे रस-गौरव की बहुलता के कारण आहार की वदन्ति-नो एषा तीर्थकरस्य आज्ञा । एवं विधेन वादेन शुद्धि नहीं रख पाते । दूसरों के द्वारा प्रेरित होने पर वे कहते हैंते आज्ञामतिकामन्ति । यह तीर्थंकर की आज्ञा नहीं है। इस प्रकार के कथन से वे आज्ञा का अतिक्रमण करते हैं। ७६. अग्घायं तु सोच्चा णिसम्म समणुण्णा जीविस्सामो एगे णिक्खम्म ते-असंभवंता विडज्झमाणा, कामेहि गिद्धा अज्झोववण्णा । समाहिमाघायमझोसयंता, सत्थारमेव फरुसं वदंति । सं०-आख्यातं तु श्रुत्वा निशम्य समनुज्ञा जीविष्याम एके निष्क्रम्य ते-असम्भवन्तो विदामानाः, कामेषु गृद्धा: अध्युपपन्नाः । समाधिमाख्यातमसेवमानाः, शास्तारमेव परुषं वदन्ति । कुछ पुरुष धर्म-उपदेश को सुनकर, समझकर, 'अनुत्तर संयम का जीवन जीएंगे' इस संकल्प से दीक्षित होकर उस संकल्प के प्रति सच्चे नहीं होते । वे कषाय की अग्नि से दग्ध, काम-भोगों में आसक्त या ऋद्धि, रस और सुख के प्रति लोलुप होकर तीर्थकर के द्वारा आख्यात समाधि का सेवन नहीं करते । वे शास्ता को भी परुष वचन बोलते है। भाष्यम् ७९-एके केचिद् स्वाख्यातं धर्म श्रुत्वा, कुछ पुरुष सु-आख्यात धर्म को सुन कर, समझ कर, 'हम निशम्य-अवधार्य समनोज्ञा:-उद्युक्तविहारिणः सन्तः उद्युक्तविहारी होकर संयम जीवन से जीवन-यापन करेंगे' इस संकल्प १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २२८ : फरुसियमावो फारुसियं द्वितीयस्त्वाह-नन्वस्मदाचार्या एवमाज्ञापयन्तीपरोप्परगुणाए अगुणाए अर्थमीमांसा, एवाउमं ! ण त्युक्ते पुनराह-सोऽपि वाचिकुण्ठो बुद्धिविकलः कि याणसि, ण य एस अत्थो एवं भवति, वितिओ पम्बहे, जानीते ? त्वमपि च शुकवत्पाठितो निरूहापोह इत्यादीन्यआयरिया एवं भणंति, पुण आह--अत्थओ आयरिओ, न्यान्यपि दुगहीतकतिचिदक्षरो महोपशमकारणं ज्ञानं जति तित्थगरोऽवि एवं आह सोऽवि ण याणति, किं विपरीततामापादयन् स्वौद्धत्यमाविर्भावयन् भाषते, पुण अण्णो ? अहवा भणति-सो कि सव्वग्णू ? सो उक्तं चवायाकुट्ठो पुद्धिविगलो कि जाणइ ? तुमपि तयोविव 'अन्यः स्वेच्छारचितानर्थविशेषान् श्रमेण विज्ञाय । पाडिठिओ णिरुहत्ताओ पुढविकाइयतुल्लो कि जाणे कृत्स्नं वाङमयमित इति खादत्यंगानि दर्पण ॥' स्ससि ? 'क्रीडनकमीश्वराणां कुक्कुटलावकसमानवाल्लभ्यः । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२६ : पारुष्यं परुषतां 'समा शास्त्राण्यपि हास्यकयां लघुतां वा क्षुल्लको नयति ॥' ददति' गृह्णन्ति, तद्यथा-परस्परगुणनिकायां मीमां- २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २२९ : बंभचरणं चरितं । सायां वा एकोऽपरमाह-त्वं न जानीषे न चैषां शब्दा ३. वही, पृष्ठ २२९ : आणा सुत्तादेसो। नामयमर्थो यो भवताऽमाणि, अपि च-कश्चिदेव ४. वही, पृष्ठ २२९ : वसित्ता जं भणितं पालित्ता। मादृशः शब्दार्थनिर्णयायालं न सर्व इति, उक्तं च ५. वही, पृष्ठ २२९ : णो देसपडिसेहो, ण सबमेवं 'पृष्टा गुरवः स्वयमपि परीक्षितं निश्चितं पुनरिवं नः । -- अवमण्णति। वादिनि च मल्लमुख्ये च मागेवान्तरं गच्छेत् ॥' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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