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________________ अ० ६. धुत, उ० ३,४. सूत्र ७४-७७ ३३१ चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक ७६. एवं ते सिस्सा दिया य राओ य, अणुपुत्वेण वाइया तेहिं महावीरेहिं पण्णाणमंतेहि । सं०-एवं ते शिष्याः दिवा च रात्रौ च अनुपूर्वेण वाचिताः तैः महावीरैः प्रज्ञानवद्भिः । उन पराक्रमी और प्रज्ञावान् गुरुजनों के द्वारा वे शिष्य इस प्रकार दिन और रात क्रमानुसार शिक्षित किए जाते हैं। भाष्यम् ७६-इह पूर्वोक्तं पुनरावर्तयति सूत्रकार:- सूत्रकार पूर्वोक्त कथन का पुनरावर्तन करते हैं-उन पराक्रमी एवं ते शिष्याः तैर्महावीरैः प्रज्ञानवद्भिः दिवा च रात्रौ और प्रज्ञावान् गुरुओं द्वारा वे शिष्य इस प्रकार दिन और रात के क्रम च अनुपूर्वेण वाचिता भवन्ति । से शिक्षित किए जाते हैं। चौँ दिने रात्री च वाचनायाः प्राचीनपरम्परा चूणि में दिन और रात में दी जाने वाली वाचना की प्राचीन निर्दिष्टा अस्ति।' परम्परा निर्दिष्ट है। ७७. तेसितिए पण्णाणमुवलम्भ हिच्चा उवसमं फारुसियं समादियंति । सं० तेषामन्तिके प्रज्ञानमुपलभ्य हित्वा उपशमं पारुष्यं समाददति । उनके पास प्रज्ञान को प्राप्त कर और उपशम का अभ्यास करके भी कुछ शिष्य ज्ञान-मद से उन्मत्त होकर परुषता का आचरण करते है। भाष्यम् ७७.-ते शिष्याः तेषां महावीराणां प्रज्ञान- वे शिष्य उन पराक्रमी और प्रज्ञावान् गुरुओं के पास प्रज्ञान वतां अन्तिके प्रज्ञानं उपलभ्य उपशमं अभ्यस्य' ज्ञानमदेन को प्राप्त कर, उपशम का अभ्यास कर, ज्ञानमद से उन्मत्त होकर परुषतां समाददति । परुषता का आचरण करते हैं । चों वृत्तौ च उपशमस्त्रिविधः निरूपित:-- चणि और वृत्ति में उपशम के तीन प्रकार निर्दिष्ट हैं-ज्ञानज्ञानोपशमः दर्शनोपशमः चारित्रोपशमश्च ।' उपशम, दर्शन-उपशम और चारित्र-उपशम । पारुष्यम् -ज्ञानस्यावलेपेन आचार्यादीनां प्रतिपत्तेः पारुष्य या परुषता का अर्थ है-ज्ञान के गर्व से आचार्य आदि १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २२७ : बिया-उक्कालियं पडच्च नाणादि, तत्थ जो जेण नाणेण उवसामिज्जइ सो नाणोकदायि दिवसतो चत्तारिवि पोरिसीओ वाइज्जेज्ज, रतिपि वसमो भवति, तं जहा- अक्खेवणीए, अहवा इसिपढमपोरिसिं वाइज्जति, सेसासुवि पादपुच्छगं, अणुपुब्वेण भासितेहिं उत्तरायणा एवमादि, दरिसणोवसमो जो आयारातिकमेण अणुपुब्बीए, तहा य भणियं-जहा से दिया विसुद्धण संमत्तेण, परंउवसमितेण परंउवसामितो, राओ, अहवा परियागमणतो तेणं, जहा 'तिवासपरिया जहा सेणियरण्णो, सो मिच्छादिट्ठी देवो सक्कवयणं गस्स कप्पति आयारकप्पे उद्दिसित्तए' एवं जाव दिट्ठिवाए, असद्दहमाणो जाव दंसणप्पभावहिं सत्येहि उवतं च जस्स जोगं, एवं अणुपुब्बीए सुत्तं अत्थं उभयं वा सामिओ, गोविंद, जत्तादिणा, चरितमेव उवसमो, वादिया बाइज्जमाणा वा। तं जहा-उवसंतकोहे उवसंतमाणो उवसंतमाओ २. अस्य मूलमस्ति हिच्चा (हित्वा) इति पदम् । अस्य 'गत्वा' उबसंतलोभो, जाहे जयमाणं साह बठूण उवसमति 'त्यक्त्वा' अर्थद्वयमपि संभवति । चूणौं प्रथमोऽर्थः दृश्यते स चरित्तोवसमो। तं उवसमं हिच्चा, जं भणितं-उवगिरिसित्ता। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२६ : तत्र यो येन ज्ञानेनोप(आचारांग चूणि, पृष्ठ २२८) शाम्यति स ज्ञानोपशमः, तद्यथा-आक्षेपण्याद्यन्यतरया वृत्तौ च 'त्यक्त्वा' इति व्याख्यातमस्ति-तत्र केचन धर्मकथया कश्चिद् उपशाम्यतीत्यादि, दर्शनोपशमस्तु क्षुद्रका ज्ञानोदन्वतोऽद्याप्युपर्येव प्लवमानास्तमेवंभूतमुपशमं यो हि शुद्धन सम्यग्दर्शनेनापरमुपशमयति, यथा त्यक्त्वा। (आचारांग वृत्ति, पत्र २२६) श्रेणिकेनाश्रद्दधानो देवः प्रतिबोधित इति, दर्शन३. (क) आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २२८ : तत्थ दवेण कचक प्रभावकर्वा सम्मत्यादिभिः कश्चिदुपशाम्यति, चारित्रोफलेण कलुसं उदगं उसमति, अंकुसेण कुंजरो, पशमस्तु क्रोधाद्युपशमो विनयनम्रतेति । दव्वस्स उवसमो सुराए पागकाले, भावोवसमो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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