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________________ ३३० आचारांगभाष्यम आकांक्षा दयितत्वं-प्रियत्वं बाधते । प्राणानां आकांक्षा प्रियता में बाधा उत्पन्न करती है। प्राणों का अतिपात: मेधावित्वं तिरस्करोति । वस्तुतः अनाकांक्षया अतिपात अर्थात् प्राण-वियोजन मेधावीपन का तिरस्कार करता है । अनतिपातेन च पांडित्यं प्रस्फुटीभवति । वास्तव में अनाकांक्षा और अनतिपात से पांडित्य-आत्मज्ञता प्रस्फुटित होती है। ७४. एवं तेसि भगवओ अणुटाणे जहा से दिया-पोए। सं०-एवं तेषां भगवता अनुष्ठाने यथा स द्विजपोतः। जैसे विहग-पोत अपने माता-पिता की इच्छा का पालन करता है), वैसे ही शिष्य ज्ञानी गुरुजनों की आज्ञा का पालन करे। भाष्यम् ७४–एकाकिप्रतिमां अचेलत्वं च त एव वे ही मुनि एकाकी-प्रतिमा तथा अचेलत्व की साधना को स्वीमनयः स्वीकुर्वन्ति ये प्रव्रज्यां प्रतिपद्य आज्ञायां वर्तन्ते कार करते हैं जो प्रव्रज्या लेकर तीर्थंकर की आज्ञा के अनुसार चलते अथवा त एव अरति अपनेतुं शक्नुवन्ति ये आज्ञामनु- हैं । अथवा वे ही मुनि अरति का अपनयन कर सकते हैं जो आज्ञा में वर्तमाना भवन्ति, अत एव सूत्रकारो वक्ति-ते शिष्याः चलते हैं। इसीलिए सूत्रकार कहते हैं-वे शिष्य उन प्रज्ञावान् गुरुतेषां भगवतां-प्रज्ञानवतां अनुष्ठाने-आज्ञायां वर्तन्ते।' जनों की आज्ञा में चलते हैं । प्रस्तुत प्रकरण में विहग-पोत का दृष्टान्त अत्र द्विजपोतस्य दृष्टान्तोऽवगन्तव्यः । यथा द्विजपोत:- जानना चाहिए । जैसे द्विज-पोत अर्थात् पक्षी का बच्चा माता-पिता पक्षिणां शिशुः मातापितृभ्यां पालितः पोषितो भवति, के द्वारा पालित, पोषित होता है और धीरे-धीरे उड़ने में समर्थ हो क्रमेण उडुयितुं समर्थो भवति, तदा मातापितरौ विहाय जाता है, तब वह माता-पिता को छोड़कर अकेला ही विचरण करने एकाकी चरति । एवं शिष्या अपि पूर्वोक्तां विशिष्टां लगता है । इसी प्रकार शिष्य भी पूर्वोक्त विशिष्ट प्रतिमा--एकलप्रतिमा प्रतिपत्तं समर्था भवन्ति । विहार प्रतिमा को स्वीकार करने में समर्थ होते हैं। ७५. एवं ते सिस्सा दिया य राओ य, अणपुग्वेण वाइय ।--त्ति बेमि। .. सं०--एवं ते शिष्याः दिवा च रात्री च अनुपूर्वेण वाचिताः । -इति ब्रवीमि । इसी प्रकार दिन और रात क्रमानुसार शिक्षित शिष्य योग्य हो जाते हैं। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ७५.--एवं ते शिष्याः प्रवाजिताः, दिवा च इस प्रकार वे शिष्य आचार्य के द्वारा प्रवजित होकर, दिन रात्री च अनुपूर्वेण वाचिता:-शिक्षा नीताः तथाविधां और रात्री में क्रमानुसार शिक्षित किए जाने पर उस प्रकार की योग्यतामर्जयन्ति । योग्यता को प्राप्त कर लेते हैं। विह १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २२५ : आणाए उट्ठाणं अणु ट्ठाणं वा, तत्थ आणाउट्ठाणे ठिच्चा इति वक्कसेसं, तित्थगरगणहर सुत्तं तहि ठिता, अहवा अणुट्ठाणं आयरणं, लोगेवि वत्तारो भवंति - अणुट्टिते हिते, पुण तेसि भगवंताणं तित्थगरगणहराणं तं आणं अणु ठेति - णवि संपाडेति ।। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२५ : भगवतो वीरवर्द्धमान स्वामिनो धर्म सम्यगनुत्थाने सति तत्परिपालन तस्तथा सदुपदेशदानेन परिकमितमतित्वं विधेयमिति । २. विहग-पोत जब अण्डस्थ होता है, तब पंख की उष्मा से पोषण प्राप्त करता है। अण्डावस्था से निकलने के बाद भी कुछ समय तक उसी से पोषण प्राप्त करता है। जब तक वह उड़ने में समर्थ नहीं होता, तब तक माता-पिता द्वारा दिए गए भोजन से वह पोषण प्राप्त करता है। उड़ने में समर्थ होने पर माता-पिता को छोड़ अकेला चला जाता है । इससे नवदीक्षित मुनि के व्यवहार की तुलना की गई है। वह प्रवज्या, शिक्षा और अवस्था से अपरिपक्व होता है, तब तक गुरु के द्वारा पोषण प्राप्त करता है और परिपक्व होने पर एकचर्या करने में भी समर्थ हो जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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