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________________ ३२६ अ० ६. धुत, उ० ३. सूत्र ६८-७३ ७१. संधेमाणे समुट्ठिए। सं0-संदधानः समुत्थितः । प्रतिक्षण धर्म का संधान करने वाले तथा वीतरागता के अभिमुख मुनि को अरति अभिभूत नहीं कर पाती। भाष्यम ७१-यो मनि: उत्तरोत्तरं संयमस्थानानि जो मूनि उत्तरोत्तर संयम-स्थानों का संधान करने वाला है, जो संदधानोऽस्ति,' यश्च समुत्थितः-क्षायोपशमिकं भावं समुत्थित है—क्षायोपशमिक भावों के प्रति जागरूक है, उस मुनि को प्रति जागरूकोऽस्ति, तं अरतिर्नाभिभवति। कदाचिद् अरति पराजित नहीं कर सकती। कदाचित् वह औदयिक भाव में चला औदयिक भावं गतः, किन्तु तत्क्षणमेव क्षायोपशमिकं जाता है, किन्तु तत्काल ही क्षायोपशमिक भाव का वह संधान कर भावं सन्धत्ते, तस्मै सन्धानाय निरन्तरं जागर्ति । लेता है। उस संधान के लिए वह निरन्तर जागरूक रहता है। कता ७२. जहा से दोवे असंदीणे, एवं से धम्मे आयरिय-पदेसिए । सं.-यथा स द्वीप: असंदीनः, एवं स धर्मः आचार्यप्रदेशितः । जैसे असदीन द्वीप आश्वास-स्थान होता है, वैसे ही तीर्थकर द्वारा उपविष्ट धर्म विरत भिक्ष के लिए आश्वास-स्थान होता है। भाष्यम् ७२–यथा असन्दीन: द्वीपः पोतयात्रिणां जैसे असंदीन द्वीप--जल से अप्लावित द्वीप पोत-यात्रियों के आश्वासहेतुर्भवति । एवं आचार्यप्रदेशितः-तीर्थकर- लिए आश्वास का हेतु होता है, वैसे ही तीर्थंकरों द्वारा प्रणीत धर्म प्रणीतःधर्मः तस्य विरतस्य भिक्षोः आश्वासहेतुर्भवति, उस विरत भिक्षु के लिए आश्वास का हेतु होता है। इसीलिए अरति अत एव अरतिस्तं नाभिभूतं करोति ।। उस भिक्षु को पराजित नहीं कर सकती । यस्य मुनेः संयमरतिः असन्दीनद्वीपतुल्या भवति, जिस मुनि की संयम-रति असंदीन द्वीप की भांति होती है, तस्य अरतिर्न सजायते।। उस मुनि में कभी अरति नहीं होती। ७३. ते अणवकंखमाणा अणतिवाएमाणा दइया मेहाविणो पंडिया। सं० ते अनवकांक्षन्तः अनतिपातयन्तः दयिताः मेधाविनः पण्डिताः। मुनि भोग की आकांक्षा तथा प्राण-वियोजन नहीं करने के कारण लोकप्रिय मेधावी और आत्मज्ञ होते हैं। भाष्यम् ७३–ते मुनयः इन्द्रियविषयान् स्वजनादि- वे मुनि इन्द्रिय-विषयों की अथवा स्वजन आदि के संबंधों संबंधान् वा अनवकाङ्क्षन्तः, प्राणान् अनतिपातयन्तः, की आकांक्षा नहीं करते हुए, प्राणियों का प्राण-वियोजन नहीं करते दयिता:-सम्मताः, मेधाविनः तथा पण्डिता:-आत्मज्ञा हुए, धार्मिक लोगों द्वारा सम्मत, मेधावी और आत्मज्ञ होते हैं। भवन्ति । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २२३ : दव्वसंधाणं छिन्नसंधाणं १. संदीन-कभी जल से प्लावित हो जाने वाला और अछिन्नसंधणं च, दव्वे अच्छिन्नसुत्तं कत्तति, रज्जू वा कभी पुनः खाली होने वाला द्वीप। अथवा बुझ जाने वट्टिज्जति, छिन्नसंधणं कंचुगादीणं, भावे पसत्य अपसत्थ, वाला दीप। छिन्नसंधणा य जहा कोयि असंजए किंचि कालं कोहस्स २. असंदीन-जल से प्लावित नहीं होने वाला द्वीप । उबसमं काउं पुणो रुस्सति, अच्छिन्नसंधणाई णिरुब्बद्धो अथवा सूर्य, चन्द्र, रत्न आदि का स्थायी प्रकाश । चेव अणंताणुबंधिकोहकसाओ, एवं माण माया लोभे य, धर्म के क्षेत्र में सम्यक्त्व आश्वास-द्वीप है। प्रतिपाती पसत्थ भावच्छिन्नसंधणा जे खओवसमियाओ भावाओ सम्यक्त्व संदीन-द्वीप और अप्रतिपाती सम्यक्त्व असंदीनउदइयभावं गतो आसी पुणो खओवसमियं चेव जाव, द्वीप होता है। ज्ञान प्रकाशदीप है। श्रुतज्ञान संदीन-दीप अच्छिन्नसंधणाओ समुट्ठिय उवसामगसेढी खवयसेढी वा, और आत्मज्ञान असंदीन-चीप है। तमेवं पसत्थभावसंधणअच्छिन्नसंधणा य समुट्ठियं अहक्खाय ___धर्म का संधान करने वाले मुनि की संयम-रति असंदीन चरिताभिमुहं वा। द्वीप या दीप जैसी होती है। २. 'दीव' शब्द की 'द्वीप' और 'दीप'-इन दो रूपों में - द्रष्टव्यम्-आचारांग चूणि, पृष्ठ २२३-२२५ । व्याख्या की जा सकती है। दीप प्रकाश देता है और द्वीप ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २२५ : एगे अणेगादेसा वृच्चति । आश्वास । ये दोनों दो-दो प्रकार के होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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