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६८. विस्सेणि कट्टु, परिण्णाए ।
सं० - विश्रेणीं कृत्वा परिज्ञया ।
मुनि समत्व की प्रज्ञा से श्रेणी मूर्च्छा को छिन्न कर डाले ।
भाष्यम् ६८ - श्रेणी - प्रासादादीनामारोहणी भूगृहादीनां च अवरोहणी । शरीरस्य मूर्च्छा संसारस्य श्रेणी वर्तते । स आगतप्रज्ञानो मुनिः समत्वपरिज्ञया तां श्रेणीं विश्रेणीं कृत्वा परिवजनं करोति ।
६६. एस तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए त्ति बेमि । सं० एष तीर्णः मुक्तो विरतो व्याहृतः इति ब्रवीमि । यह मुनि तीर्ण, मुक्त, विरत कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूं ।
भाष्यम् ६९ए मुनिः मूर्च्छासमुद्र तरन् तीर्ण इति व्याहृतः । कर्मबन्धेन मुच्यमानः मुक्त इति व्याहृतः । असंयमाद् विरज्यमानः विरत इति व्याहृतः ।
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भाष्यम् १० - यो भिक्षुः चिररात्रोषितः - दीर्घकालेन प्रव्रजितोऽस्ति यश्च विरतः - इन्द्रियविषयेषु रतः आकृष्टो वा नास्ति, यश्च रीयमाण:- अप्रशस्तमाचरणं परित्यज्य प्रशस्ताचरणेषु उत्तरोत्तरं गतिशील तस्मिन् भिक्षौ अरतिः किं विधारयेत् ? यस्य असंयमे रति संयमे च अरतिविद्यते तं अरतिपरीवहः पराभवति किन्तु यः प्रतिक्षणं विबुध्यते संयमे च रमते तत्र कथं अरति प्रवेश: संभवेत् ?
७०. विरयं भिक्खु रीयंतं, चिररातोसियं, अरती तत्थ कि विधारए ?
सं० विरतं भिक्षु रीयमाणं चिररात्रोषित अरतिस्तत्र कि विधा?
चिरकाल से प्रव्रजित, संयम में उत्तरोत्तर गतिशील विरत भिक्षु को क्या अरति अभिभूत कर पाती है ?
अतो युच्चति पेन कलेण ते मंससोणिए मिस तते,
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न जयंतस्स रुक्षाहारस्स अप्पाहारस्स पायसो खलत्तेमेव आहारो परिणमति, किंचि रसीभवति, रसाओ सोणियं तं पि कारण अपत्ता एते तणुयमेव भवति, सोणिते पतणुए य तप्पुव्वगं मंसंपि तणुईभवति, एवमेयं अट्ठ मंसं सुक्कमिति सव्वाणि एयाणि तणुईभवंति प्रायसो, दुखं चायतं भवति, वाते य सति णसंत सतत्तायपागो व सोणियादीणं तणुत्तं भवति । (ख) चूर्णिकार ने उपकरण लाघव की भांति शरीर- लाघव के सभी सूत्रों की ओर इंगित किया है। उसके अनुसार तीनों सूत्रों (६३ ६४ ६५) का अनुवाद इस प्रकार है
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श्रेणी का अर्थ है - प्रासाद आदि के ऊपर चढने की सीढी और तलघर आदि में नीचे उतरने की सीढी । शरीर की मूर्च्छा संसार की श्रेणी है। वह प्रज्ञाप्राप्त मुनि समता की परिक्षा (विवेक) से उस श्रेणी को विश्रेणी कर—छिन्न कर परिव्रजन करता है।
आचारांगभाष्यम्
यह प्रज्ञाप्राप्त मुनि मूर्च्छा के सागर को तरता हुआ 'तीर्ण' कहलाता है, कर्मबंध से मुक्त होता हुआ 'मुक्त' कहलाता है और असंयम से विरक्त होता हुआ 'विरत' कहलाता है।
जो भिक्षु दीर्घकाल से प्रव्रजित है, जो विरत है - इन्द्रिय विषयों में अनुरक्त या आकृष्ट नहीं है, जो अप्रशस्त आचरण का परित्याग कर प्रशस्त आचरणों में उत्तरोत्तर गतिशील है, उस भिक्षु को क्या जरति अभिभूत कर पाती है? जिस भिक्षु की असंयम में रति और संयम में अरति होती है, उस भिक्षु को अरति का परीषह अभिभूत कर देता है, किन्तु जो प्रतिक्षण जागृत रहता है, संयम में रमण करता है, उसमें अरति का प्रवेश कैसे संभव हो सकता है ?
६३. ज्ञान का ग्रहण और तप करने वाले मुनि के शरीर-साधन होता है ।
६४. शरीर को कृश करने वाले मुनि के तप होता है। ६५. भगवान ने जैसे शरीर लाघव का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर, सब प्रकार से, सर्वात्मना समत्व को समझकर किसी की अवज्ञा न करे ।
'चार मास का उपवास करनेवाला मुनि मासिक उपवास करने वाले मुनि की अवज्ञा न करे । इसी प्रकार विशिष्ट स्वाध्याय करने वाला अल्प स्वाध्याय करने वाले की अवज्ञा न करे । समत्व का अनुशीलन करने वाला मुनि किसी की भी अवज्ञा नहीं करता ।'
(आचारांग चूर्णि पृष्ठ २२१-२२२)
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