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________________ अ० ६. धुत, उ० ४. सूत्र ७८-८२ ३३३ संयमजीवनेन जीविष्यामः इति सङ्कल्पपूर्वकं अभि- के साथ अभिनिष्क्रमण कर मुनि बनते हैं, किन्तु पुनः मोह कर्म के निष्क्रमणं कृत्वा मुनयो भवन्ति, किन्तु पुनर्मोहोदयात् उदय से वे औदयिकभाव में प्रवृत्त हो जाते हैं। उस स्थिति में औदयिके भावे वर्तन्ते । तस्यां अवस्थायां ते आख्यातं वे आख्यात समाधि-इन्द्रिय और मन का संयम अथवा एकाग्रता का समाधि-इन्द्रियमनसोः संयम ऐकाग्रय वा असेवमानाः आचरण न करते हुए शास्ता के प्रति परुष वचन कहते हैं । उस परुष शास्तारं परुष वदन्ति। तस्य परुषवचनस्य चत्वारः वचन बोलने के चार हेतु यहां निदिष्ट हैं-- हेतवः अत्र निर्दिष्टा:१. असंभवनम् -गौरववशात् समाधिमार्गे न सम्यग् १. असंभवन-गौरव अर्थात् ऋद्धि, रस और सुख के वशीभूत वर्तनम् । होने के कारण समाधि मार्ग में सम्यग् वर्तन न करना । २. विदाहः-कषायाग्निना प्रज्वलनम् । २. विदाह --कषाय की अग्नि से प्रज्वलित । ३. कामगद्धिः-विषयासक्तिः । ३. कामगृद्धि-विषयों की आसक्ति। ४. अध्युपपत्ति:-रसलोलुपत्वं सुखलोलुपत्वं वा। ४. अध्युपपत्ति-रस-लोलुपता अथवा सुख-लोलुपता । ८०. सीलमंता उवसंता, संखाए रीयमाणा । असीला अणुवयमाणा। सं० --शीलवतः उपशान्तान् संख्यया रीयमाणान् अशीलान् अनुवदन्तः । वे शीलवान्, उपशांत तथा प्रज्ञा-पूर्वक संयम में गतिशील मुनियों को अशीलवान् बतलाते हैं। भाष्यम् ८०-शीलं उपशम: प्रज्ञा-एतानि त्रीणि शील, उपशम और प्रज्ञा-ये साधु के तीन लक्षण हैं । संयम सन्ति साधोर्लक्षणानि। स्वयं संयम अनाचरन्तस्ते का स्वयं अनाचरण करने वाले वे शीलवान्, उपशांत तथा प्रज्ञापूर्वक शीलवतः उपशान्तान् संख्यया-प्रज्ञया रीयमाणान अपि संयम में गतिशील साधुओं को भी 'ये अशीलवान् हैं', ऐसा कहते साधून 'एते अशीला' इति अनुवदन्ते । वह ८१. बितिया मंदस्स बालया। सं०-द्वितीया मन्दस्य बालता। यह उन मंदमतियों की दोहरी मूर्खता है। भाष्यम् ८१-स स्वयं उपशमं त्यजति एषा तस्य वह मुनि स्वयं उपशम को छोड़ता है-यह उसकी पहली प्रथमा बालता। अन्येषां उद्यक्तविहारिणां च अपवादं मुर्खता है। वह अन्य उद्युक्तविहारी मुनियों का अपवाद करता करोति, एषा तस्य मन्दस्य द्वितीया बालता । है-यह उस मंदमती की दूसरी मूर्खता है। ८२. णियट्टमाणा वेगे आयार-गोयरमाइक्खंति णाणभट्टा दसणलसिणो । सं०-निवर्तमाना वैके आचार-गोचरमाचक्षते ज्ञानभ्रष्टाः दर्शनलूषिणः । कुछ ज्ञान-भ्रष्ट, दर्शन-वंसी और संयम से निवर्तमान मुनि आचार-गोचर की व्याख्या करते हैं। भाष्यम् ८२–एके केचिद् संयमाद् निवर्तमाना संयम से निवर्तमान कुछ मुनि आचार-गोचर की व्याख्या आचारगोचरं आचक्षते, तेषां अभिप्रायः-भगवता करते हैं। उनका अभिप्राय है-भगवान् महावीर ने मुनियों घोर: आचारगोचरः प्रतिपादितः । इदानीमेष दूरधिष्ठि- के लिए घोर आचार-गोचर का प्रतिपादन किया है। वर्तमान तोऽस्ति, अतः मध्यममार्ग एव श्रेयान । एवं प्रतिपादयन्तस्ते में उसका पालन कर पाना दुष्कर है। इसलिए मध्यम मार्ग ही उपशमकारकाद् ज्ञानाद् भ्रष्टा भवन्ति । भगवता श्रेयस्कर है। इस प्रकार का प्रतिपादन करते हुए वे मुनि उपशमकारक प्रतिपादितं आचारविषयकं अहिंसात्मकं सम्यगदर्शनं. ज्ञान से भ्रष्ट हो जाते हैं। भगवान् ने आचार विषयक अहिसात्मक तस्य विध्वंसमपि कुर्वन्ति । उक्तञ्च वृत्ती-असदनष्ठा- सम्यग्दर्शन का प्रतिपादन किया था। वे मुनि इसका भी विध्वंस कर नेन स्वतो विनष्टा अपरानपि शङ्कोत्पादनेन सन्मार्गात देते हैं । वृत्ति में कहा है- 'असद् आचरण के कारण वे स्वयं विनष्ट च्यावयन्ति । होकर दूसरों में शंका उत्पन्न कर उनको भी सन्मार्ग से च्युत कर देते हैं। १. आचारांग वृत्ति, पत्र २२७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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