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________________ आचारांगभाष्यम् ८३. णममाणा एगे जीवितं विप्परिणामेंति । सं०-नमन्तः एके जीवितं विपरिणामयन्ति । विनय-प्रणत होते हुए भी कुछ मुनि संयम-जीवन को प्रतिकूल कर देते हैं। भाष्यम् ८३–एके केचित् तीर्थकरं आचार्य वा तीर्थंकर या आचार्य के प्रति नत होते हुए भी कुछ मुनि नमन्तोपि ऋद्धिरससातगौरवत्रयवशात् जीवितमिति ऋद्धि, रस और सात-इस गौरवत्रयी के वशीभूत होकर संयम संयमजीवन विपरिणामयन्ति-प्रतिकूलतां नयन्तीत्यर्थः। जीवन को प्रतिकूल बना डालते हैं। इस सूत्र का तात्पर्य यह है अस्य सत्रस्य तात्पर्य मिदं-गौरवत्रयं शिष्यं संयम- कि गौरवत्रयी शिष्य को संयम से विमुख कर डालती है। पराङ्मुखं करोति। ८४. पुढ़ा वेगे णियटति, जीवियस्सेव कारणा। सं..... स्पृष्टाः वैके निवर्तन्ते जीवितस्यैव कारणात् । कुछ साधक परीषहों से स्पृष्ट होकर केवल सुखपूर्ण जीवन जीने के लिए संयम को छोड़ देते हैं। भाष्यम ४-एके केचित् परीषहैः स्पृष्टाः निवर्तन्ते कुछ साधक परीषहों से स्पृष्ट होने पर असंयमपूर्ण जीवन के जीवितस्येति असंयमजीवितस्य कारणात्, वयं सुखेन लिए संयम को छोड़ देते हैं। 'हम सुखपूर्वक जीएंगे'-ऐसा सोच जीविष्याम इति कृत्वा संयमात् निवर्तन्ते, पुनः प्रविशन्ति कर संयम जीवन से निवृत्त हो जाते हैं, पुनः गृहस्थ-जीवन में प्रवेश गृहस्थजीवने। कर जाते हैं। ८५. णिक्खंतं पि तेसि दुन्निक्खंतं भवति। . सं०--निष्क्रान्तमपि तेषां दुनिष्क्रान्तं भवति । उनका गृहवास से निष्क्रमण भी दुनिष्क्रमण हो जाता है। भाष्यम् ८५.--गृहवासाद् निष्क्रमणस्य प्रयोजनमस्ति गृहवास से निष्क्रमण करने का प्रयोजन है-आत्मा की अनूआत्मानुभूतिः आत्मोपलब्धिश्च । तस्य प्रयोजनस्य भूति करना और आत्मा को उपलब्ध होना । उस प्रयोजन की सिद्धि संसिद्धौ परीषहा अपि भवन्ति सोढव्याः । ये भवन्ति के लिए परीषहों को भी सहना होता है। जो उन परीषहों को सहने तान सोढं अक्षमाः तेषां गृहस्थजीवनात् निष्क्रमणमपि में अक्षम होते हैं उनका गृहस्थ जीवन से निष्क्रमण भी दुनिष्क्रमण हो भवति दुनिष्क्रमणम् । जाता है। ८६. बालवयणिज्जा ह ते नरा, पुणो-पुणो जाति पकति ।। सं.-बालवचनीयाः खलु ते नराः पुनः पुनः जाति प्रकल्पयन्ति । वे साधारण जन के द्वारा भी निन्दनीय होते हैं और बार-बार जन्म को प्राप्त होते हैं। भाष्यम ८६-ये निष्क्रमणं सार्थकतां न नयन्ति ते जो निष्क्रमण को सार्थक नहीं बनाते वे संसार में साधारण जो निष्क्रमण को सार्थक नहीं बनाते है नरा लोके बालैरपि जनैर्वचनीया भवन्ति । 'एते मुनि- लोगों के द्वारा भी निन्दनीय होते हैं। 'ये मुनि-जीवन को स्वीकार जीवनं स्वीकृत्यापि गहस्थवद् आचरन्ति । एतैः वेशः करके भी गृहस्थ जैसा आचरण करते हैं । इन्होंने केवल वेश बदला परिवर्तितः न तु वत्तयः परिवर्तिताः'-एतादृशैः आक्षेपैः है, वृत्तियां नहीं बदली हैं'-ऐसे आक्षेपों के द्वारा उन का तिरस्कार तान् आक्षिपन्ति । पारलौकिकदृष्ट्या पुनः पुनः जाति करते हैं , पारलौकिक दृष्टि से भी वे बार-बार जन्म की परम्परा को प्रकल्पयन्ति-जन्मनः परम्परां प्रवर्धयन्तीति यावत् । बढाते हैं । मूर्छा कर्म का बीज है। कर्म जन्म-मरण का बीज है । मुर्छा कर्मणो बीजम् । कर्म च जातिमरणयो: बीजम् । उससे जन्म-मरण का चक्र निरंतर गतिशील रहता है। ततः जातेचकं निरन्तरं गतिशीलं जायते। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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