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________________ ३३५ अ० ६. धुत, उ० ४. सूत्र ८३-६० ८७. अहे संमवंता विद्दायमाणा, अहमंसी विउक्कसे । सं०-अधः संभवन्तो विद्वस्यन्तः अहमस्मि व्युत्कर्षेयुः । वे ज्ञान की निम्न भूमिका में होते हुए भी अपने को विद्वान् मानकर अहं का ख्यापन करते हैं। भाष्यम् ८७-अहंकारस्य अनेके हेतवः सन्ति। न अहंकार के अनेक हेतु हैं। केवल बहुज्ञता ही अहंकार का बहुज्ञता एव अहंकारस्य निमित्तं जायते, किन्तु अल्पज्ञ- निमित्त नहीं बनती, किन्तु अल्पज्ञता भी उसका निमित्त बनती है। ताऽपि तस्य निमित्तं भवति । एतदेवात्र निदर्शितं । यहां इसी तथ्य का निदर्शन किया गया है। वे मुनि संयम-स्थानों ते अधः संभवन्तः-संयमस्थानेषु श्रुतपर्यायेषु वा निम्न- अथवा ज्ञान-पर्यायों की निम्न भूमिका में होते हुए भी अपने को स्थितौ वर्तमाना अपि तथा विद्वस्यन्तः अहम् अस्मीति विद्वान् मान कर 'मैं हूं'- इस प्रकार अहं का ख्यापन करते हैं । व्युत्कर्ष कुर्वन्ति । ८८. उदासीणे फरसं वदंति । सं०-उदासीनान परुषं वदन्ति । वे मध्यस्थ मुनियों के लिए परुष वचन बोलते हैं। भाष्यम् ८८-ते उदासीनान्'-गौरवत्रिकशून्यान वे मुनि उदासीन अर्थात् गौरवत्रिक से शून्य मुनियों के प्रति मुनीन् प्रति परुषवचनानि प्रयुञ्जते। तत् सूत्रेणैव परुष वचन का प्रयोग करते हैं। वह अग्रिम सूत्र के द्वारा ही बताया प्रदर्श्यते। वृत्तिकारेणापि परुषवचनप्रकार: निदर्शितोस्ति जा रहा है। वृत्तिकार ने भी परुष वचन के प्रकार का निदर्शन किया -बहुश्रुतत्वे सत्युपशान्तान् स्खलितचोदनोद्यतान् परुषं है-बहुश्रुत होने के कारण उपशांत तथा स्खलनाओं के प्रति सावधान वदन्ति, तद्यथा--स्वयमेव तावत् कृत्यमकृत्यं वा जानीहि करने वाले मुनियों को पष वचन बोलते हैं, जैसे-पहले स्वयं के ततोऽन्येषामुपदेक्ष्यसीति । ही कृत्य अथवा अकृत्य को जान लो फिर दूसरों को उपदेश देना । ८६. पलियं पगंथे अदुवा पगंथे अतहेहिं । सं.---'पलिय' 'पगंथे” अथवा 'पगंथे' अतथैः । वे कर्म की स्मृति दिला कर अथवा असभ्य शब्दों का प्रयोग कर तथा तथ्यहीन आरोप लगा कर परुष बोलते हैं। भाष्यम् ८९-द्रष्टव्यम्-६।४२,४३ । देखें-६।४२,४३ । ...तं मेहावी जाणिज्जा धम्म । सं०-तं मेधावी जानीयाद् धर्मम् । इसलिए मेधावी को धर्म जानना चाहिए। भाष्यम् ९०-गौरवत्रिकेणाभिभूतास्ते उक्तविधानि गौरवत्रिक से अभिभूत वे पुरुष उक्त प्रकार के आचरण करते आचरणानि कुर्वन्ति, तस्मात् मेधावी धर्म जानीयात्। हैं, इसलिए मेधावी व्यक्ति को धर्म जानना चाहिए । जहां गौरव है यत्रास्ति गौरवं तत्र नास्ति धर्मः। गौरवपरित्यागेनैव वहां धर्म नहीं है। गौरव के परित्याग से ही धर्म का ज्ञान होता धर्मो विज्ञातो भवति। १. आचारांग वृत्ति, पत्र २२८ : उदासीनाः रागद्वेषरहिता मध्यस्थाः। २. वही, पत्र २२८ । ३-४. देशीयशब्दौ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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