SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 380
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारांगभाष्यम ६१. अहम्मट्ठी तुमंसि णाम बाले, आरंभट्ठी, अणुवयमाणे, हणमाणे, घायमाणे, हणओ यावि समणुजाणमाणे, घोरे धम्मे उदीरिए, उवेहइ णं अणाणाए। सं०-अधर्मार्थी त्वमसि नाम बालः, आरम्भार्थी, अनुवदमानः, घ्नन्, घातयन्, घ्नतश्चापि समनुजानानः, घोरः धर्मः उदीरितः, उपेक्षते अनाज्ञया । धर्म-शून्य साधक को आचार्य इस प्रकार अनुशासित करते हैं-'त अधर्मार्थी है, बाल है, आरंभार्थी है, आरम्भ करने वालों का समर्थक है, तू प्राणियों का वध कर रहा है, करवा रहा है, करने वाले का अनुमोदन कर रहा है। भगवान ने घोर धर्म का प्रतिपादन किया है, तू आज्ञा का अतिक्रमण कर उसकी उपेक्षा कर रहा है।' भाष्यम ९१-गौरवत्रिकेण अभिभूत आचार्येण एवं जो मुनि गौरवत्रिक से पराभूत है, उस पर आचार्य इस प्रकार अनूशास्यते-त्वमसि अधर्मार्थी, बालोऽसि, अपि च अनुशासन करते हैं-तुम अधर्मार्थी हो, अज्ञानी हो, और तो क्या, आरम्भार्थी' असि, अनुवदनसि-आरम्भप्रवृत्तानां आरंभार्थी हो तथा आरम्भ करने वालों के समर्थक हो। तुम स्वयं समर्थनं करोषि । त्वं स्वयं प्राणिनां वधं करोषि, प्राणियों का वध करते हो, दूसरों से वध करवाते हो तथा वध करने कारयसि, कुर्वतः समनुजानासि। भगवता घोरः वालों का अनुमोदन करते हो। भगवान् ने घोर धर्म का प्रतिपादन धर्म उदीरितः । त्वं गौरवत्रयाभिभूतः अनाज्ञया तस्य किया है। तुम गौरवत्रिक से अभिभूत हो और अनाज्ञा से उसकी उपेक्षां कुरुषे । घोरः-सर्वास्रवनिरोधात्मकसंवररूपः ।। उपेक्षा करते हो । घोर का अर्थ है---सभी आश्रवों का निरोधक संवर । उदीरितः-उदाहृतः । अनाज्ञा'-अनुपदेशः'। उदीरित का अर्थ है-उदाहुत । अनाज्ञा का अर्थ है-जो तीर्थंकर का उपदेश नहीं है। १. चूणों' अस्य पदस्य व्याख्याद्वयं विद्यते-'आरंभणं आरंभो पदणपादणादिअसंजमो, तेण जस्स अट्ठो से भवति आरंभट्ठी अहवा इढिगारवरसगारवसातागारवा आरंभट्ठी, तत्थ विज्जामंतणिमित्तसद्दहेतुमादी अहिज्जति पउंजइ वा जो रिद्धि हे सो रिद्धिगारवारंभट्ठी, ताणि चेब रसहेलं पउंजति अहिज्जति वा रसगारवारंभट्ठी, एवं सातागारवारंभट्ठीवि'। (आचारांग चूणि, पृष्ठ २२९) २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २२९-२३० : अणुवयमाणोत्ति अणु वदणं अणुवादो, वदतो पच्छा वदति अणुवदति, तक्कादीसु पयणपयावणादि आरंभे वदंति, तद्दडतक्की, तस्स पक्खं ते अणुवदंति, एकोत्थ दोसो, ण असरीरो धम्मो भवति, तेण धम्मसरीरं धरेयव्वं, साहू य तं, जं भणितं--'मणुग्णं भोयणं भोच्चा' अहवा णितियादिवायो वा कुसीलं अणुवदति, मा एवं भण, जहा अम्हे वि णिहीणपेच्चवावारा इहलोगपडिबद्धा संसारसूयरा, ण तुझे, एवं ठिता चेइयपूयणं तो करेह, विसेसेण य आगंतुयआगमिते लक्खणखमते उत गिण्ह, सव्वं किर पडिवादी, वेदावच्चं अपडि वाइ, एवं तेसिं अणुकूलं वति । ३. वृत्तौ (पत्र २२८) एषु पदेषु सम्बन्धमाला प्रदर्शिता अस्ति ... कुतोऽधर्मार्थी ? यतो 'बालः' अज्ञः, कुतो बालो? यत 'आरम्भार्थी' सावद्यारम्भप्रवृत्तः, कुतः आरम्भार्थी ? यतः प्राण्युपमर्दवादाननुवदन्नतद् बूषे, तद्यथा-जहि प्राणिनोऽपररेवं घातयन् घ्नतश्चापि समनुजानासि गौरवत्रिकानुबद्धः पचनपाचनादिक्रियाप्रवृत्तांस्तत्पिण्डतर्की तत्समक्ष ताननुवदसि-कोऽत्र दोषो ? न ह्यशरीरैर्द्धर्मः कत्तुं पायंते, अतो धर्माधारं शरीरं यत्नतः पालनीयमिति, उक्तं च 'शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीराज्जायते धम्मों, यथा बीजात् सदङ कुरः ॥' ४. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३० : घोरो-भयाणगो, सव्वस्सविणिरोधाओ, अहीव एगंतदिट्टित्ता दुरण चरित्ता कापुरिसाणं। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२८ : घोरः भयानको धर्मः सर्वानवनिरोधात् दुरनुचरः। ५. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३० : उड्ढे ईरितो उदाह रितो दरिसितोत्ति वा तित्थगरगणहरेहि, तेहिं तेहि चेव उज्जयं ईरिते उदीरितो। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२८ : उत्-प्राबल्येनेरितः कथितः प्रतिपादितस्तीर्थकरगणधरादिभिः । ६. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३० : तित्थगरगणधराणं अणाणाए-अणुवदेसेण । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२८ : अनाज्ञया तीर्थकरगण धरानुपदेशेन स्वेच्छया प्रवृत्त इति । ७. द्रष्टव्यम्-अष्टमाध्ययनस्य तृतीय सूत्रम् । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy