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________________ अ० ६. धुत, उ० ४. सूत्र ६१-६४ ६२. एस विस वित विवाहितेति बेमि । सं०-- एष विषण्णः वितर्दः व्याहृतः इति ब्रवीमि । वह विषय और संवर धर्म के प्रतिकूल कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूँ। माध्यम् ९२ - यः प्रमादी गौरवत्रवेणाभिभूतः पोरं धर्म उपेक्षमाणः स एष विषण्णः आस्रवपङ्के निमग्नः तथा वितर्द :- संवरधर्मस्य प्रतिकूलप्रवृत्तः व्याहृत इति ब्रवीमि । ६३. किमणेण भो ! जणेण करिस्सामित्ति मण्णमाणा एवं पेगे वइत्ता, मातरं पितरं हिच्चा, णातओ य परिग्गहं । वीरायमाणा समुए, अहिंसा या बंता । सं० - किमनेन भो ! जनेन करिष्यामि इति मन्यमानाः एवं अप्येके उदित्वा मातरं पितरं हित्वा ज्ञातीन् च परिग्रहं वीरायमाणाः समुत्थाय अविहिंसाः सुव्रताः दान्ताः । माध्यम् ९३ - केचित् प्रकृष्टपरिणामधारया प्रव्रजिता भवन्ति । एष जनः - मातापित्रादिस्वजनवर्गः इहापि तावत् जन्ममरणरोगशोकाभिभूतस्य न त्राणाय भवति इति चिन्तनपूर्वकं वैराग्यमापन्नाः भो ! 'अनेन जनेन किं करिष्यामि' इति मन्यमानाः, तथा यावज्जीवं सिंहवृत्त्या विहरिष्यामि इति उदित्वा मातरं पितरं ज्ञातीन् परिग्रहं च त्यक्त्वा वीरभावमापद्मा गृहस्थजीवनात् समुत्थानं कृत्वा अहिंसकाः, सुव्रताः- तपस्विनः, दान्ताःइन्द्रियानिन्द्रियजयिनो भवन्ति ।। 'हे आत्मन् ! इस स्वजन का मैं क्या करूंगा ?' – यह मानते और कहते हुए कुछ लोग माता-पिता, ज्ञाति और परिग्रह को छोड़ वीरवृत्ति से प्रवजित होते हैं—अहिंसक, सुव्रती और दांत बन जाते हैं । ४. अहेगे पस्स बोणे उप्पइए पडिवयमाणे । सं० - अथ एकान् पश्य दीनान् उत्पत्य प्रतिपततः । उन दीन और उठकर गिरते हुए कुछ मुनियों को तू देख । भाष्यम् ९४ – अथ एके संयमस्य आरोहणं कृत्वा गौरवाधीनाः सन्तः प्रतिपतन्ति - सिंहवृत्त्या अभिनिष्क्रमणं कृत्वा पुनः शृगालवृत्तिमाचरन्ति । तान् दीनान् परीषपराजितान् त्वं पश्य । अनयोः सूत्रयो (९३,९४) परिणामधारायाः अनवस्थितत्वं प्रदर्शितम् । १. (क) आचारांग भूणि, पृष्ठ २३० विविहंगो भारवाहे पहियनदीतरता एवमादि सो सम्मति, भावसण्णो णाणदंसणचरिताणि पत्तो तहावि ण तेसु जो भत्तिमंताण उज्जमति । ३३७ जो प्रमादी साधक गौरवत्रिक से अभिभूत होकर घोर धर्म की उपेक्षा करता है वह आश्रवरूपी पंक में निमग्न और वितर्व-संवर धर्म के प्रतिकूल प्रवृत्ति करने वाला कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूं। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२९ : विषण्णः कामभोगेषु । २. (क) आशंग भूणि पृष्ठ २३०-२३१ विविहं सहो २ Jain Education International कुछ व्यक्ति उत्कृष्ट परिणामधारा से प्रव्रजित होते हैं । यह जन अर्थात् माता-पिता आदि स्वजन वर्ग इस लोक में भी जन्म, मरण, रोग, शोक से अभिभूत व्यक्ति को भाग नहीं दे पाता इस फिलन से वे वैराग्य को प्राप्त होते हैं 'इस स्वजन वर्ग का मैं क्या करूंगा ऐसा मानते हुए तथा यह कहते हुए कि मैं यावज्जीवन सिंहवृत्ति से संयम जीवन में विहरण करूंगा' वे माता, पिता, ज्ञातिजन तथा परिग्रह को छोड़ कर वीरतापूर्वक गृहस्थ जीवन से समुत्थान कर - अभिनिष्क्रमण कर प्रव्रजित हो जाते हैं। वे अहिंसक, सुव्रततपस्वी तथा दांत - इन्द्रिय और मन पर विजय प्राप्त करने वाले होते हैं । कुछ साधक संयम में आरोहण कर गौरवत्रिक के अधीन होकर नीचे गिर जाते हैं अर्थात् सिंहवृत्ति से अभिनिष्क्रमण कर पुनः शृगालवृति का आवरण करने लग जाते हैं। उन दोन परीषहों से पराजित मुनियों को तू देख इन दो सूत्रों (९३-९४ ) में परिणामधारा की अनवस्थितता बताई गई है। दवे मच्छकंटगादि गलए लग्गो वितद्द, भावओ नापस्स उपदेश अपसोचे बहुति एवं समनाथचरितविण तिरिीतो वितो । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२९ विविधं तदंतीति वितद-हिंसकः, 'सर्व हिसाया' मित्यस्मात् कर्तरि पचाद्यच्, संयमे वा प्रतिकूलो वितर्वः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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