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१५. बसट्टा कायरा जणा लूगा भवंति ।
भाष्यम् ९१ - प्रतिपतनस्य
सं० – वशार्त्ताः कातराः जनाः लूषकाः भवन्ति । वशात और कायर मनुष्य व्रतों का विध्वंस करने वाले होते हैं। कारणमस्ति वशास्वं संयम से भ्रष्ट होने के दो कारण हैं-वशार्त्तता और कातरत्वं च वगा: इन्द्रियविषयकषायवशेन आत कातरता बसा का अर्थ है-इन्द्रियविषय तथा कषाय की अधीनता । वशात्तः । से पीडित । वशा चार प्रकार के होते है -- क्रोधवशात, मानवशार्त्त, मायावणात तथा लोभमा जो व्यक्ति परीषहों को सहने में असमर्थ होता है, वह कातर कहलाता है । वशा और कातर पुरुष व्रतों के विध्वंसक होते हैं।
वशार्त्तः । स चतुर्विधो भवति - क्रोधवशार्त्तः, मानबशार्तः मायावशार्त्तः लोभवशार्त्तश्च ।' परीषहं सोढुमनीशः कातरः । वशार्त्ताः कातराश्च जनाः व्रतानां लूषका:- विध्वंसका भवन्ति ।
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६. अहमेगेसि सिलोए पावए भवइ, 'से समणविभंते समणविग्भते ।' सं० - अथैकेषां श्लोकः पापको भवति स श्रमणविभ्रान्तः श्रमणविभ्रान्तः' ।
कुछ मुनियों की निन्दनीय प्रसिद्धि होती है, जैसे- 'यह विद्यांत धमण है, यह विद्यांत भ्रमण' है ।
एकेषां भाष्यम् ९६-- अथ तेषां भग्नव्रतानां भग्नोत्साहानां भग्नपराक्रमाणां पापकः श्लोको भवति, यथा असौ विभ्रान्तः भ्रमणः विभ्रान्तः श्रमणः श्लोक:- लापा प्रसिद्धि ।
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भाष्यम् ९७ - प्रव्रजितानां पुण्यश्लोकस्य चत्वारो हेतवः भवन्ति
(१) वे
७. पासगे समण्णाग एहि असमण्णागए, णममार्णोह अणममाणे, विरतिह अविरते, दविएहि अदविए ।
सं० - पश्यत एकान् समन्वागतेषु असमन्वागतान्, नमत्सु अनमतः, विरतेषु अविरतान् द्रव्येषु अद्रव्यान् ।
तुम देखो, संयम से च्युत होने वाले मुनि सम्यग् आचार वालों के बीच असम्यग् आचार वाले, समर्पित मुनियों के बीच असमर्पित,
विरत मुनियों के बीच अविरत तथा चारित्र से सम्पन्न मुनियों के
बीच चारित्र से दरिद्र होते हैं।
प्रव्रजित मुनियों की प्रशंसात्मक प्रसिद्धि के चार हेतु होते हैं१. जो संयम के प्रति समन्वागत - जागरूक होते हैं ।
२. जो संयम के प्रति प्रणत- समर्पित होते हैं ।
३. जो विरत - इन्द्रिय-विषयों के प्रति अनाकृष्ट होते हैं ।
भवन्ति जागरूकाः ।
समन्वागता:- संयमं प्रति
(२) ये भवन्ति प्रणताः - संयमं प्रति समर्पिता इति यावत् ।
(३) ये भवन्ति विरताः इन्द्रियविषयान् प्रति अनाकृष्टाः ।
( ४ ) ये भवन्ति द्रव्याः - रागद्वेषविजयिनः ।
तेषु एके केचित् गौरवेणाभिभूताः भवन्ति असमन्वागताः, अप्रणताः, अविरताः, अद्रव्याश्च ।
आचारांगधाध्यम
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व्रतों को भग्न करने वाले उत्साहहीन तथा पराक्रमशून्य
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कुछेक मुनियों की निन्दनीय प्रसिद्धि होती है। लोग कहते है वह विभ्रांत अमण है, यह विभ्रांत श्रमण 'लोक का अर्थ हैश्रमण श्लाघा अथवा प्रसिद्धि ।
४. जो द्रव्य - राग-द्वेष के विजेता होते हैं ।
उनमें से कुछेक मुनि गौरव से अभिभूत होकर असमन्यागतसंयम के प्रति अजागरूक, अप्रणत-संयम के प्रति असमर्पित, अविरत - इन्द्रिय-विषयों के प्रति आकृष्ट और अद्रव्य-राग-द्वेष से पराभूत होते हैं ।
८. अभिसमेच्चा पंडिए मेहावी णिट्टियट्ठे वीरे आगमेणं सया परक्कमेज्जासि । -त्ति बेमि ।
सं० - अभिसमेत्य पंडितो मेधावी निष्ठितार्थः वीरः आगमेन सदा पराक्रामेत् । - इति ब्रवीमि ।
उत्प्रव्रजित होने के परिणामों को जान कर पण्डित, मेधावी, मोक्षार्थी और वीर मुनि सदा आगम के अनुसार पराक्रम करे । ऐसा मैं कहता हूं।
१. द्रष्टव्यम् - भगवती १२।२२-२५ ।
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