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अ० ६.धुत, उ०४,५. सूत्र ६५-१००
३३६ भाष्यम् १८-उत्प्रव्रजनस्य परिणामान् अभिसमेत्य उत्प्रव्रजन के परिणामों को जानकर पंडित मुनि आगम के पण्डितो मुनिः आगमेन सदा पराक्रामेत्, इति ब्रवीमि। अनुसार संयम में सदा पराक्रम करे, ऐसा मैं कहता हूं। आगमः-आज्ञा चिन्तनं वा।'
आगम का अर्थ है-आज्ञा अथवा चिंतन । अत्र मुनिः चतुर्भिविशेषणः विशेषितः । स एव मुनिः प्रस्तुत आलापक में मुनि के चार विशेषण हैं । वही मुनि प्रव्रज्यायां विहर्तुमर्हति यो भवति पण्डितः-तत्त्ववेत्ता, प्रव्रज्या में विहरण कर सकता है जो पंडित-तत्त्ववेत्ता होता है, जो यो भवति मेधावी-धारणक्षमः मर्यादाशीलो वा, यो मेधावी-धारण करने में समर्थ अथवा मर्यादाशील होता है, जो भवति निष्ठितार्थ:-विषयसुखनिष्पिपास: मोक्षार्थी वा, निष्ठितार्थ-विषयसुखों के प्रति अनाकांक्षी अथवा मोक्षार्थी होता है, यश्च भवति वीरः-पराक्रमी सहिष्णुर्वा ।
जो वीर-पराक्रमी अथवा सहिष्णु होता है।
पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक
६६. से गिहेसु वा गिहतरेसु वा, गामेसु वा गामंतरेसु वा, नगरेसु वा नगरंतरेसु वा, जणवएसु वा जणवयंतरेसु वा,
संतेगइया जणा लूसगा भवंति, अदुवा–फासा फुसंति ते फासे, पुट्ठो वीरोहियासए। सं०-अथ गृहेषु वा गृहान्तरेषु वा, ग्रामेषु वा ग्रामान्तरेषु वा, नगरेषु वा नगरान्तरेषु वा, जनपदेषु वा जनपदान्तरेषु वा सन्त्येकके जनाः लूषकाः भवन्ति । अथवा-स्पर्शाः स्पृशन्ति तान् स्पर्शान स्पृष्टः वीरोऽधिसहेत। गहों में, गृहांतरों में, ग्रामों में, ग्रामांतरों में, नगरों में, नगरांतरों में, जनपदों में, जनपदांतरों में मुनि को कुछ लोग अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग देते हैं अथवा विविध स्पर्श-परीषह प्राप्त होते हैं। उनसे स्पृष्ट होने पर वीर मुनि उन सबको सहन करे।
भाष्यम् ९९-तितिक्षा मुनिजीवनस्य परमो धर्मो मुनि जीवन का परम धर्म है तितिक्षा । इसीलिए बार-बार वर्तते। अत एव पुनः पुनरुच्यते-मुनिर्वीरो भवति । न कहा जाता है कि मुनि वीर होता है। पराक्रमहीन व्यक्ति मुनित्व तु पराक्रमहीनः मुनित्वमाराधयितुमर्हति । स गृहादिषु की आराधना नहीं कर सकता । गृह आदि स्थानों में रहा हुआ, स्थानेषु आसीनः, कायोत्सर्गमुद्रायां स्थितः, अध्वप्रति- कायोत्सर्ग-मुद्रा में स्थित अथवा परिव्रजन करता हुआ वह मुनि कुछ पन्नो वा कैश्चिल्लूषकः-उपद्रवकारिभिः उपद्रुतो उपद्रवकारी लोगों से उपद्रुत होता है। वे उसे अनुकूल या प्रतिकूल भवति। अनुलोमोपसर्गकारिणः संयमलूषका भवन्ति। उपसर्गों से पीडित करते हैं। अनुलोम या अनुकूल उपसर्ग करने वाले प्रतिलोमोपसर्गकारिणः शरीरलूषका भवन्ति अथवा संयम को लूटने वाले होते हैं और प्रतिलोम या प्रतिकूल उपसर्ग करने स्पर्शा:-शीतोष्णदंशमशकादिपरोषहाः, तैः स्पृष्टस्तान वाले शरीर को लूटने वाले होते हैं। अथवा स्पर्श का अर्थ है - सर्दी, अधिसहेत।
गर्मी, दंशमशक आदि के परीषह । उनसे स्पृष्ट होने पर वीर मुनि उन
सबको सहन करे। १००. ओए समियदसणे।
सं०-ओजः सम्यक्दर्शनः । पक्षपात-रहित और सम्यग्-वर्शनी मुनि धर्म की व्याख्या करे। १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३४ : आगममाणो
(ख) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३४ : ट्ठि णेतीणि द्वितं, चितेमाणो।
जं भणितं-मोक्खो हि, उत्तमो अत्थो उत्तमत्थो। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २३० : आगमेन–सर्वज्ञप्रणीतो- ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २३५-२३६ : लूसंतीति लूसगा, पदेशानुसारेण।
सरीरलूसगा संजमलूसगा वा पडिलोमा, अणुलोमा तु २. (क) आचारांग वृत्ति, पत्र २३० : निष्ठितार्थः विषय
एगंतेण संजमलूसगा। सुखनिष्पिपासः ।
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