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________________ ३४० आचारांगभाष्यम् भाष्यम् १००-ओजः-एक: रागदोषरहित: मध्यस्थ ओज का अर्थ है-अकेला, राग-द्वेष शून्य, मध्यस्थ । निशीथइति यावत् । उक्तञ्च निशीथचूर्णी-रागवोसविरहितो चूर्णि में कहा है-जो राग-द्वेष से रहित है तथा दो के बीच रहता वोह विमझी वट्टमाणो तुलासमो ओयो मण्णति । हुआ तुला के समान मध्यस्थ होता है, वह ओज कहलाता है । १०१. दयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडीणं दाहिणं उदीणं, आइक्खे विमए किट्टे वेयवी। सं-दया लोकस्य ज्ञात्वा प्राचीनं प्रतीचीन दक्षिणमुदीचीनं आचक्षीत विभजेत् कीर्तयेत् वेदविद् । आगमज्ञ मुनि पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर-सभी दिशामों और विदिशाओं में जीव-लोक की बया को ध्यान में रखकर धर्म की व्याख्या, उसके विभाग का निरूपण और उसके परिणाम का प्रतिपावन करे। भाष्यम् १०१-धर्म कः प्रतिपादयेत् इति पूर्वसूत्रे धर्म का प्रतिपादन कौन करे—यह पूर्व सूत्र में कहा जा उक्तम् । अत्रोच्यते-यथा अहिंसायाः विकासः स्यात् चुका है । प्रस्तुत आलापक में कहते हैं कि जैसे अहिंसा का विकास हो तथा धर्म प्रतिपादयेत्। लोकः षड़जीवकायलोकः। वैसे धर्म का प्रतिपादन करे । यहां लोक का अर्थ है-षड् जीवनिकाय धर्मकथी वेदविद् मुनिः सर्वासु दिक्षु जीवलोकस्य दयां- लोक । धर्मकथी आगमज्ञ मुनि सभी दिशाओं में जीवलोक की अहिंसां ज्ञात्वा धर्म आचक्षीत । वेवः-आगमः शास्त्रं दया-अहिंसा को ध्यान में रख कर धर्म की व्याख्या करे । वेद का वा। वेदवित्-आगमज्ञः । अर्थ है--आगम अथवा शास्त्र । जो आगमज्ञ है वह वेदविद है । अत्र त्रीणि क्रियापदानि विद्यन्ते प्रस्तुत आलापक में तीन क्रियापद हैंतत्र 'माइखे' इति पदेन सामान्यनिरूपणं विवक्षितम्। १. आइक्खे-इससे सामान्य निरूपण विवक्षित है। 'विभए' इति पदेन विभज्यवादं प्रयुजीत इति २. विमये-इससे यह सूचित किया गया है कि धर्म की सूचितम् । यथा च सूत्रकृताङ्गे-विभज्जवायं च वियाग- व्याख्या करने वाला मुनि 'विभज्यवाद' की शैली का प्रयोग करे । रेज्जा । जैसे सूत्रकृतांग में कहा गया है 'मुनि विभज्यवाद से धर्म का कथन करे। 'किट्ट' इति पदेन अनुष्ठानफलस्य कीर्तनमभिप्रेतम् ।' ३. किट्टे-इससे अनुष्ठानफल -परिणाम का कथन अभिप्रेत १०२. से उठ्ठिएसु वा अणुट्टिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए-संति, विरति, उवसमं, णिव्वाणं, सोयवियं, अज्जवियं, __ मद्दवियं, लावियं, अणइवत्तियं । सं०-स उत्थितेषु वा अनुत्थितेषु वा, शुश्रूषमाणेषु प्रवेदयेत्-शान्ति, विरति, उपशम, निर्वाणं, शौचं, आर्जवं, मार्दवं, लाधवं, अनतिवृत्तिकम्। वह मुनि धर्म सुनने के इच्छुक मनुष्यों के बीच, फिर वे उत्थित हों या अनुत्थित, शांति, विरति, उपशम, निर्वाण, शौच, आजब, मार्दव, लाघव और अहिंसा का प्रतिपादन करे। १. 'ओज'शब्दः सकारान्तोऽपि दृश्यते। अकारान्तस्य अर्थोऽस्ति "विषमः' आप्टे, ओजः odd, uneven | एकसंख्यापि विषमसंख्या वर्तते। तेनास्य एकसंख्यापर कोऽर्योऽपि नास्त्यसंगतः। २. निशीथ भाष्यचूणि, गा० ४८१८ (भाग-३) पृष्ठ ५११। ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २३६ : सा य बया वन्वादिसु भवति, दव्वतो छसु जीवनिकायेसु, लोगग्गहणा बव्वग्गहणं । एवं च णातं भवति, जति कीरति, खित्ते उ पाईणं पदीणं सवाहि विसाहिं सवाहि अणुदिसीहि य पाणातिवातं पडिसेधंति, कालतो जावज्जीवं, भावतो अरत्तो अवुट्ठो। ४. आचारांग वृत्ति, पत्र २३२ : 'विभजेत्' द्रव्यक्षेत्रकालभाव भेदैराक्षेपण्यादिकथाविशेषेर्वा प्राणातिपातमुषावादावत्तादानमैथुनपरिग्रहरात्रीभोजनविरतिविशेषेर्वा धर्म विभजेत्, यदि वा कोऽयं पुरुषः कं नतो देवताविशेष अभिगृहीतोऽनभिगृहीतो वा? एवं विमजेत् । ५. द्रष्टव्यम्-सूयगडो १।१४।२२ श्लोकस्य टिप्पणम् । ६. आचारांग वृत्ति, पत्र २३२ : कीर्तयेद् व्रतानुष्ठानफलम् । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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