SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८४ आचारांगभाष्यम् भगवत्यामपि आत्मचैतन्ययोरभेदः प्रतिपादितो- भगवती आगम में भी आत्मा और चैतन्य का अभेद प्रतिस्ति पादित हैजीवे णं भंते ! जीवे ? जीवे जीवे ? गौतम ने पूछा-भंते ! आत्मा जीव है या चैतन्य जीव है ? गोयमा ! जीवे ताव नियमा जीवे, जीवे वि नियमा भगवान् बोले- गौतम ! आत्मा नियमतः जीव है और जीवे। चैतन्य भी नियमत: जीव है।' ___अस्मिन् प्रतिपादितम्-आत्माऽपि जीवः चैतन्यमपि इसका प्रतिपाद्य है कि आत्मा भी जीव है और चैतन्य भी जीवः । येन करणभूतेन आत्मा विजानाति तज्ज्ञानं जीव है। जिस साधन से आत्मा जानती है, वह ज्ञान भी आत्मा है। आत्मा ।' १०५. तं पडुच्च पडिसंखाए । सं०--तत् प्रतीत्य प्रतिसंख्यायते । उस ज्ञान की विभिन्न परिणतियों की अपेक्षा से आत्मा का व्यपदेश होता है। भाष्यम् १०५-यदि आत्मनः ज्ञानस्य च अभेद: यदि आत्मा और ज्ञान का अभेद सम्मत है तो फिर ज्ञान की। सम्मतः तहि ज्ञानबहुत्वे सति प्रत्येकमात्मनः बहुत्वं अनेकता से प्रत्येक आत्मा की भी अनेकता हो जाएगी। मतिज्ञान आदि भविष्यति । मतिज्ञानादीनां अनन्ताः पर्यवाः सन्ति । के अनन्त पर्यव हैं, उस स्थिति में एक आत्मा अनन्त आत्माएं बन तस्यामवस्थायां एक आत्मा अनन्तमात्मत्वं प्राप्स्यति जाएगी। इस जिज्ञासा के प्रसंग में सूत्रकार कहते हैं यह आत्मा इति जिज्ञासायां सूत्रकार: निर्दिशति--अयमात्मा यद् जिस-जिस ज्ञान में परिणत होती है, उस उसको प्राप्त कर वह वैसी ही यद ज्ञानं परिणमति तत तत प्राप्य तत्पक्षो भवति, तेन बन जाती है, इसलिए वह आत्मा उस ज्ञान की अपेक्षा से जानी जाती स तस्य ज्ञानस्यापेक्षया ज्ञायते व्यपदिश्यते वा। यदा स है या व्यपदिष्ट होती है। जब वह घटज्ञान से उपयुक्त होती है तब घटज्ञानेन उपयुक्तो भवति तदा घटज्ञानो भवति । एवं वह आत्मा 'घटज्ञान' होती है। इस प्रकार श्रोत्र के विषय में उपयुक्त श्रोत्रोपयुक्तः श्रोत्रेन्द्रियः यावत् स्पर्शोपयुक्तः स्पर्शनेन्द्रियो होकर श्रोत्रेन्द्रिय, यावत् स्पर्श के विषय में उपयुक्त होकर स्पर्शेन्द्रिय भवति । घटज्ञाने न पटस्योपयोगः भवति, पटज्ञाने च नैव हो जाती है। घटज्ञान में पट का उपयोग नहीं होता और न पटज्ञान भवति घटस्योपयोगः। में घट का उपयोग होता है। अत्र त्रिपदी समवतारणीया यहां इस त्रिपदी का समवतार करना चाहिएआत्मा उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तः । आत्मनः अस्तित्वं आत्मा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त है। ध्रुवं, ज्ञानस्य परिणामाः उत्पद्यन्ते व्ययन्ते च । आत्मा का अस्तित्व ध्रुव है। ज्ञान के परिणाम उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं । एतां त्रिपदी प्रतीत्य एक एव आत्मा नानारूपे इस त्रिपदी के आधार पर एक आत्मा का अनेक रूपों में प्रतिसंख्यातो भवति। व्यपदेश होता है। १०६. एस आयावादी समियाए-परियाए विवाहिते ।-त्ति बेमि । सं० - एष आत्मवादी सम्यकपर्यायः व्याहृतः।-इति ब्रवीमि । यह आत्मवादी सम्यग् पर्याय कहलाता है। ऐसा मैं कहता हूं। १. अंगसुत्ताणि २, भगवई, ६।१७४ । कारतया वस्तु जानाति विजानाति स आत्मा, न २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १९५ : अण्णे भणति-कि तस्मादात्मनो भिन्नं ज्ञानं, तथाहि-न करणतया जे आता से विण्णाया? जे विण्णाया से आता? भेवः, एकस्यापि कर्तृकर्मकरणभेदेनोपलब्धेः, तद्यथा-- पुच्छा, वागरणं तु जेण वियाणति से आता, केण देवदत्त आत्मानमात्मना परिच्छिनत्ति । वियाणति ? नाणेणं पंचविहेणं वियाणति, तं च नाणं ३. अंगसुत्ताणि २, भगवई २११३७ । अप्पा चेव, ण ततो अत्यंतरं अप्पा। ४. चूणिकारेण एतत् सूत्रं व्यापकदृष्ट्यापि व्याख्यातम् । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २०५ : येन मत्यादिना ज्ञानेन (आचारांग चूणि, पृष्ठ १९५) करणभूतेन क्रियारूपेण वा विविधं-सामान्यविशेषा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy