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________________ अ० ५. लोकसार, उ० ५-६. सूत्र १०५-१०६ २८५ भाष्यम् १०६-पूर्वोक्त आत्मवादं अभ्युपगच्छन् एष पूर्वोक्त आत्मवाद को स्वीकार करने वाला आत्मवादी सम्यक् आत्मवादी सम्यकपर्यायः व्याहृतः । तस्यैव पर्याय: पर्याय वाला (सत्य का पारगामी) कहलाता है। उसी का ही पर्याय सम्यग् भवति य आत्मनः यथार्थ स्वरूपं परिच्छिनत्ति। सम्यग् होता है जो आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानता है । छट्ठो उद्देसो : छठा उद्देशक १०७. अणाणाए एगे सोवट्ठाणा, आणाए एगे निरुवट्ठाणा । सं०- अनाज्ञायां एके सोपस्थानाः आज्ञायां एके निरुपस्थानाः । कुछ पुरुष अनाज्ञा में उद्यमी और आज्ञा में अनुद्यमी होते हैं । भाष्यम् १०७-केचित् पर्यायं गृहीत्वापि मोहा- कुछ मनुष्य प्रव्रज्या ग्रहण करके भी मोह से अभिभूत होकर भिभूताः न सम्यक् पर्यायं प्रवर्तन्ते । तान् लक्ष्यीकृत्य प्रव्रज्या में सम्यक् प्रवर्तित नहीं होते। उन शिष्यों को लक्ष्य कर आचार्यः शिष्यान् संबोधयति-एके मुनयः अनाज्ञायां आचार्य कहते हैं कुछ मुनि अनाज्ञा में उद्यम करने वाले होते हैं । सोपस्थानाः कृतोद्यमाः भवन्ति । एके आज्ञायां कुछ मुनि आज्ञा में निरुद्यमी होते हैं, उद्यम करने वाले नहीं होते। निरुपस्थानाः—निरुद्यमा भवन्ति । अनाना---अनुपदेशः स्वमनीषिकाचरितमाचरण- अनाशा का अर्थ है-तीर्थंकर का अनुपदेश, अपनी बुद्धि से मिति । तस्यामुद्यमस्य कारणमस्ति इन्द्रियपरवशता, किया हुआ आचरण । उस (अनाज्ञा) में उद्यम करने का मूल हेतु हैस्वाभिमानप्रदर्शन, पूर्वाग्रहश्च । इन्द्रियों की परवशता, अपने अहं का प्रदर्शन और पूर्वाग्रह । आज्ञा-उपदेशः, तस्यामनुद्यमस्य कारणमस्ति आज्ञा का अर्थ है-तीर्थंकर का उपदेश । उसमें अनुद्यम का आलस्यं, स्तब्धता, उदासीनता च । कारण है-आलस्य, अहंकार और उदासीनता। १०८. एतं ते मा होउ। सं०-एतत् तव मा भवतु । यह तुम्हारे मन में न हो। भाष्यम् १०८-शिष्यस्योपरि अनुकम्पासलिलकणान् शिष्यों पर मानो करुणा के रस-कणों को बरसाते हुए आचार्य वर्षयन्त इव आचार्या ब्रुवते--एतत् कुमार्गवासनावासि- कहते हैं शिष्यो ! दो बातें तुम्हारे में न हों-१. तुम्हारा मन कुमार्ग तान्तःकरणत्वं सन्मार्गावसीदनं च, द्वयमपि मा भूत् ।' की वासना से वासित न हो। २. सन्मार्ग में मन विषादग्रस्त न हो। वर्षयन्त इव आचार्या युवता एतत् कुमार्गवासनावासि- कहते हैं जियो की बात तुम्हारे में नहा का तुम्हारा मन कुमाण १०६. एयं कुसलस्स बसणं । सं०-एतत् कुशलस्य दर्शनम् । यह महावीर का दर्शन है। भाष्यम् १०९-अनाज्ञायामुद्यमः आज्ञायामनुद्यमश्च अनाज्ञा में उद्यम तथा आज्ञा में अनुद्यम कल्याण के लिए नहीं न श्रेयसे भवति, तदेतत् कुशलस्य-भगवतो महावीरस्य होता, यही दर्शन भगवान् महावीर का है। दर्शनमस्ति । १. द्रष्टव्यम्-आयारो श६६। २. द्रष्टव्यम-आयारो ॥६७ । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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