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आचारांगभाष्यम् उत्तराध्ययन चूणि के अनुसार 'गोपालिक महत्तर शिष्य' के रूप में मिलता है।'
आचारांग का तीसरा व्याख्या-ग्रन्थ 'टोका' है। चूर्णि और वृत्ति-ये दोनों नियुक्ति के आधार पर चलते हैं। नियुक्ति का शब्द-शरीर संक्षिप्त है, किन्तु दिशा-सूचन और ऐतिहासिक दृष्टि से वह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। चूर्णि का शब्द-शरीर टीका की अपेक्षा संक्षिप्त है, किन्तु अर्थाभिव्यक्ति और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत मूल्यवान् है । टीका का शब्द-शरीर उपलब्ध व्याख्या-ग्रंथों से सबसे बड़ा है । इसके कर्ता शीलाङ्कसूरि हैं । उन्होंने अपना दूसरा नाम 'तत्त्वादित्य' बतलाया है। आचारांग की पुष्पिका के अनुसार उन्होंने आचारांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध) की टीका गुप्त सम्वत् ७७२, भाद्र शुक्ला पंचमी के दिन 'गम्भूता' (उत्तर गुजरात में पाटण का पार्श्ववतीं 'गांभू' नामक गांव) में पूर्ण की थी।
शीलाङ्कसूरि का अस्तित्व-काल ई० ८वीं शती माना जाता है। दीपिका-रचयिता-अंचल गच्छ के मेरुतुंगसूरि के शिष्य माणिक्यशेखरसूरि । दीपिका-रचयिता-खरतर गच्छ के जिनसमुद्रसूरि के पट्टधर जिनहंससूरि । अवचूरि-रचयिता-हर्षकल्लोल के शिष्य लक्ष्मीकल्लोल । रचना वि० सं० १६०६ (?) । बालावबोध-रचयिता-पावचन्द्रसूरि ।
पद्यानुवाद और वार्तिक-इन दोनों के कर्ता श्रीमज्जयाचार्य (विक्रम की २० वीं शती) हैं । पद्यानुवाद-आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को राजस्थानी में पद्यात्मक व्याख्या है। वार्तिक आचार-चूला पर लिखा गया है। उसके चर्चास्पद विषयों के स्पष्टीकरण के लिए प्रस्तुत वार्तिक बहुत महत्त्वपूर्ण है।
ऊपर की पंक्तियों में हमने व्याख्या-ग्रंथों की चर्चा की है। प्रस्तुत शीर्षक में अनुपलब्ध व्याख्या ग्रंथों पर दृष्टि डाल लेना आवश्यक है। आर्य गन्धहस्ती ने आचारांग के प्रथम अध्ययन 'शस्त्र-परिज्ञा' की टीका में उसी का संक्षिप्त सार संकलित किया है। आचारांग टीका में उन्होंने लिखा है
शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनं च गन्धहस्तिकृतम् । तस्मात् सुखबोधार्थ गृह्णाम्यहमञ्जसा सारम् ॥३॥ (आचारांग वृत्ति, पत्र १) शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिगहनमितीव किल वृतं पूज्यः।
श्रीगन्धहस्तिमिविवृणोमि ततोऽहमवशिष्टम् ॥२॥ (आचारांग वृत्ति, पत्र ७४) हिमवंत थेरावली के अनुसार आर्य गंधहस्ती ने बारह अङ्गों पर विवरण लिखा था। आचारांग सूत्र का विवरण विक्रम संवत् के दो सौ वर्ष बाद लिखा गया। ऊपर उद्धृत आचारांग वृत्ति के श्लोकों से इस अभिमत की पुष्टि नहीं होती कि आर्य गन्धहस्ती ने समग्र आचारांग पर विवरण लिखा था । आचारांग भाष्य
आचारांग के व्याख्या ग्रन्थों में इसका अपना विशिष्ट स्थान है । अनेक वर्षों से मेरे मन में एक कल्पना थी कि आगम पर भाष्य लिखा जाए । मेरी भावना आचार्य महाप्रज्ञ तक पहुंची और इन्होंने सरल संस्कृत भाषा में आचारांग भाष्य का प्रणयन कर दिया। इन्होंने चूणि और वृत्ति से हटकर अनेक शब्दों, पदों और सूत्रों का सर्वथा नया अर्थ किया है । वह अर्थ स्व-कल्पित नहीं, किंतु सूत्रगत गहराई में पैठने की सूक्ष्म मेधा से प्राप्त है। यह आचारशास्त्र का शलाकाग्रन्थ आचार की यथार्थता का बोध देगा और आगम-परम्परा में अपना वैशिष्ट्य स्थापित करेगा।
-गणाधिपति तुलसी १. उत्तराध्ययन चूणि, पृ० २-३ ।
४. जीतकल्पसूत्र, प्रस्तावना, पृ० ११-१५: पुष्पिकागत २. आचारांग वृत्ति, पत्र २८८: ब्रह्मचर्याख्यश्रुतस्कन्धस्य रचना-संवत् भिन्न-भिन्न आदों में भिन्न-भिन्न प्रकार का नितिकुलीनशीलाचार्येण तत्वादित्यापरनाम्ना बाहरि- मिलता है । देखिए–'जैन आगम साहित्य मां गुजरात', साधुसहायेन कृता टीका परिसमाप्ता।
पृ० १७६। ३. वही, पत्र २८८ :
५. प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० १९८ । द्वासप्तत्यधिकेषु हि शतेषु गतेषु गुप्तानाम् । संवत्सरेषु मासि च, भाद्रपदे शुक्लपञ्चम्याम् ॥ शीलाचार्येणकृता, गम्भूतायां स्थितेन टोकषा। सम्यगुपयुज्य शोध्यं, मात्सर्यविनाकृतरायः ॥
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