SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३० । भाष्यम् १२६ – प्रथितः —बद्धः । कामैर्ग्रथितः पुरुषः अनुपरिवर्तमानो भवति अनुपरिवर्तनानुप्रेक्षा काममुक्तेः द्वितीय उपायविषयः कामस्य आसेवनेन तस्येच्छा न शाम्यति । किन्तु कामी पुरुष वारं वारं तमनुपरिवर्तते । 'काम अकामेन शाम्यति न तु तस्यासेवनेन' इत्यनुभूतेर्जागरणमस्ति काममुक्तेः समर्थ मालम्बनम् । १२७. संधि विदित्ता इह मच्चिएहि । सं० सन्धि विदित्वा इह मर्त्येषु । पुरुष मरणधर्मा मनुष्य के शरीर की संधि को जानकर कामासक्ति से मुक्त हो । भाष्यम् १२७ - आगमेषु 'सन्धि' शब्दस्य प्रयोगो नानार्थवाची दृश्यते । प्रस्तुतागमे षट्स्थानेषु आलोच्य पदमुपलभ्यते - १. 'समुट्ठिए अणगारे आरिए आरियपणे आरियदंसी अयं संधीति अवक्यू" अत्र सन्धिरिति विवरम् । । २. संधि विदित्ता इह मच्चिएहि ।" अत्र सन्धिपदं अस्थिजोडवाचकमस्ति । ३. 'संधि लोगस्स जाणित्ता ।" अत्र सन्धिपदं अभिप्रायवाचकमस्ति । प्रस्तुतसूत्रेण सह 'समयं लोगस्स जाणिता, ""पुरु लोयस्स जाणित्ता " सूत्रे अपि भावनीये । ति अवक्खु ।" अत्र (१) अतीन्द्रिय ४. 'एत्थोवरए तं शोसमाणे 'अयं संधी' सन्धिपदस्य द्वा प्रासङ्गिको स्तः चैतन्योदयहेतुभूतं कर्मविवरं सन्धिः । (२) अप्रमादाध्यवसायसन्धानभूतं शरीरवतिकरणं चैतन्यकेन्द्र चक्रमिति यावत् । २. समायरस एनापतय- रयस्स इह विप्यनुक्कर, offee मग्गे विरयस्स त्ति बेमि । " - ६. 'हे गए संधी सोसिए, एवमन्यत् संधी बृज्योसिए भवति ..........". अत्र सन्धिविवरं ज्ञानदर्शनचारित्राराधना वा । १. आवारी, २१०६ २. बही, २।१२७ ३. वही, ३१५१ ४. वही, ३।३ Jain Education International आचारांगभाष्यम् । प्रथित का अर्थ है - बद्ध काम में आसक्त पुरुष अनुपरिवर्तन करता रहता है, उत्तरोत्तर कामों के पीछे चक्कर लगाता रहता है । अनुपरिवर्तना की अनुप्रेक्षा करना काममुक्ति का दूसरा उपाय-विजय है। 'काम' के आसेवन से कामेच्छा शान्त नहीं होती, किन्तु कामी पुरुष बार-बार 'काम' के पीछे दौड़ता रहता है । 'काम अकाम से उपशांत होता है, काम के आसेवन से नहीं' -- इस अनुभूति का जागरण काममुक्ति का सशक्त आलंबन है । आगमों में 'संधि' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में हुआ है। प्रस्तुत आगम में संधि शब्द छह स्थानों में उपलब्ध होता है १. भार्य, आर्यप्रज्ञ, आर्यदर्शी और संयम में तत्पर अनगार ने 'यह संधि है' ऐसी अनुभूति की है। यहां संधि का अर्थ है-विवर २. पुरुष मरणधर्मा मनुष्य के शरीर की संधि को जानकर यहां संधि का अर्थ है - हड्डियों की जोड़ । -- ३. सभी प्राणी जीना चाहते हैं, इस संधि को जानकर यहां संधि का अर्थ है अभिप्राय । प्रस्तुत सूत्र के साथ-साथ 'सब आत्माएं समान हैं' तथा 'लोक के दुःख को जानकर' - ये दोनों सूत्र भी ज्ञातव्य हैं। ४. इस शासन में स्थित मुनि ने शरीर को संपत कर यह 'संधि' है ऐसा देखा है। यहां संधि शब्द के दो प्रासंगिक है(१) अतीन्द्रिय चेतना के उदय में हेतुभूत कर्म-विवर । (२) अप्रमत्त अध्यवसाय की निरंतरता को बनाए रखने वाले शरीरवर्ती करण चैतन्य- केन्द्र अथवा चक्र | ५. 'जो संधि को देखता है, एक आयतन ( वीतरागता ) में लीन है, ऐहिक ममत्व से मुक्त है, हिंसा से विरत है, उसके लिए कोई मार्ग नहीं है ऐसा मैं कहता हूँ। ६. जैसे मैंने यहां संधि की आराधना की है, वैसी संधि की आराधना अन्यत्र दुर्लभ है। यहां संधि का अर्थ है-विवर अथवा ज्ञान दर्शन - चारित्र की समन्वित आराधना । ५. वही, ३।७७ ६. वही, ५२० ७. वही, ५३० ८. वही, ५४१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy