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अ० २. लोकविचय, उ० ५. सूत्र १२४-१२६ विपश्यी लोकविपश्यी। विपश्यनाध्यानार्थं शरीरस्य विपश्यना ध्यान के लिए शरीर के तीन भाग किये जाते हैंत्रयो भागाःक्रियन्तेनाभिप्रदेश: लोकस्य तिर्यग्भागः,
नाभि का प्रदेश-लोक का तिर्यग्भाग । ततो निम्नः प्रदेशः लोकस्य अधोभागः,
नाभि से नीचे का भाग-लोक का अधोभाग । तत उपरितनः प्रदेशः लोकस्य ऊर्ध्वभागः ।
नाभि से ऊपर का भाग-लोक का ऊर्श्वभाग । यः अनिमेषचक्षुर्भूत्वा शरीरस्य विपश्यनां करोति
जो साधक अनिमेषदृष्टि से शरीर की विपश्यना करता हैतस्य त्रीनपि भागान् केवलं जानाति पश्यति, न शरीर के तीनों भागों को केवल जानता है, देखता है, उनके विषय तदविषये कामपि संवेदनां करोति स कामानतिक्रमितुं में कोई संवेदन नहीं करता वह 'काम' का अतिक्रमण करने में समर्थ समर्थो भवति।'
होता है। १२६. गढिए अणुपरियट्टमाणे।
सं०-प्रथितः अनुपरिवर्तमानः । काम में आसक्त पुरुष अनुपरिवर्तन कर रहा है। १. (क) चित्त को काम-वासना से मुक्त करने का पहला
दीदर्शी साधक मनुष्य के उन भावों को जानता है, आलम्बन है-लोक-दर्शन।
जो अधोगति के हेतु बनते हैं, उन भावों को जानता है, लोक का अर्थ है-भोग्यवस्तु या विषय । शरीर भोग्य
जो ऊर्ध्वगति के हेतु बनते हैं और उन भावों को जानता वस्तु है। उसके तीन भाग हैं
है, जो तिर्यग् (मध्य) गति के हेतु बनते हैं। • अधोभाग-नामि से नीचे।
(घ) इसकी त्राटक-परक व्याख्या भी की जा सकती है• ऊर्ध्वभाग–नाभि से ऊपर ।
आंखों को विस्फारित और अनिमेष कर उन्हें किसी • तिर्यग्भाग–नाभि-स्थान ।
एक बिंदु पर स्थिर करना त्राटक है। इसकी साधना सिद्ध प्रकारान्तर से उसके तीन भाग ये हैं
होने पर ऊर्च, मध्य और मधः-ये तीनों लोक जाने जा • अधोभाग-आंख का गड्ढा, गले का गड्ढा, मुख के सकते हैं। इन तीनों लोकों को जानने के लिए इन तीनों बीच का भाग ।
पर ही त्राटक किया जा सकता है। • ऊर्ध्वभाग-घटना, छाती, ललाट, उभरे हुए भाग।
भगवान् महावीर ऊवलोक, अधोलोक और मध्यलोक • तिर्यग्भाग-समतल भाग ।
में ध्यान लगाकर समाधिस्थ हो जाते थे साधक देखे-शरीर के अधोभाग में स्रोत है, ऊर्ध्वभाग में
(आयारो, ९४११४)। स्रोत है और मध्यभाग में स्रोत है-नाभि है।
इससे ध्यान की तीन पद्धतियां फलित होती हैंदेखें-आयारो, २११८ ।
१. आकाश-दर्शन, __ शरीर को समग्रदृष्टि से देखने की साधना-पद्धति बहुत
२. तिर्यग् भित्ति-दर्शन, महत्त्वपूर्ण रही है। प्रस्तुत सूत्र में उसी शरीर-विपश्यना
३. भूगर्भ-दर्शन। का निर्देश है। उसे समझने के लिए 'विसुद्धिमग्ग' का छट्ठा
आकाश-दर्शन के समय भगवान ऊर्ध्वलोक में विद्यमान परिच्छेद पठनीय है।
तत्त्वों का ध्यान करते थे। तिर्यग् भित्ति-दर्शन के समय वे (देखें-विसुद्धिमन्ग, भाग १ पृष्ठ १६०-१७५)।
मध्यलोक में विद्यमान तत्त्वों का ध्यान करते थे। भूगर्भ(ख) प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या का दूसरा नय है
दर्शन के समय वे अधोलोक में विद्यमान तत्वों का ध्यान दीर्घदर्शी साधक देखता है-लोक का अधोभाग विषय
करते थे। ध्यानविचार में लोक-चितन को आलम्बन वासना में आसक्त होकर शोक आदि से पीड़ित है।
बताया गया है। ऊवलोकवर्ती वस्तुओं का चितन उत्साह लोक का ऊवभाग भी विषय-वासना में आसक्त होकर
का आलम्बन है। अधोलोकवर्ती वस्तुओं का चिंतन पराशोक आदि से पीड़ित है।
क्रम का आलम्बन है। तिर्यग्लोकवर्ती वस्तुओं का चिंतन लोक का मध्यभाग भी विषय-वासना में आसक्त होकर
चेष्टा का आलम्बन है । लोक-भावना में भी तीनों लोकों शोक आदि से पीड़ित है।
का चिन्तन किया जाता है। (ग) प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या का तीसरा नय है
(नमस्कार स्वाध्याय, पृष्ठ २४९)
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