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________________ 'चदशन अ० २. लोकविचय, उ० ५. सूत्र १२७-१२६ विसुद्धिमग्गे' सन्धिदर्शनं वैराग्यस्य आलम्बनरूपेण 'विसुद्धिमग्ग' ग्रन्थ में संधि को देखना वैराग्य का आलम्बन सम्मतमस्ति । माना गया है। . प्रस्तुतप्रकरणे मर्येषु-मनुष्यशरीरेषु सन्धिदर्शनं प्रस्तुत प्रकरण में मनुष्य के शरीर में संधि को देखना कामकामवासनाविमुक्तेरस्ति तृतीय उपायविचयः।' वासना की मुक्ति का तीसरा उपाय-विचय है। १२८. एस वीरे पसंसिए, जे बद्ध पडिमोयए। सं०-एषः वोरः प्रशंसितः यो बद्धान् प्रतिमोचयेत् । वही वीर प्रशंसित होता है जो काम-वासना से बद्ध को मुक्त करता है। भाष्यम् १२८-काममुक्तिः पराक्रमेण भवति । तेन पराक्रम से ही काममुक्ति साधी जा सकती है। इसलिए इस अस्मिन् साधनापथे यः संयमवीर्येण वीरो भवति, स एव साधना-पथ में जो अनगार संयमवीर्य से वीर होता है, वही प्रशंसनीय प्रशंसनीयो भवति, काममुक्तौ सफलतां लभते इति होता है, अर्थात् वही काममुक्ति में सफल हो सकता है। उस व्यक्ति का तात्पर्यम । तस्य वीरत्वं प्रस्फूटीभवति यः कामबन्धनेन वीरत्व प्रस्फुटित होता है जो स्वयं को कामवासना के बंधनों से मुक्त बद्धं स्वं ततो विमुक्तं कृत्वा अन्यानपि बद्धान् करता है और दूसरे जो कामवासना में बंधे हुए हैं, उनको भी मुक्त प्रतिमोचयेत् । करता है। १२६. जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो। सं०-यथा अन्तः तथा बहिः, यथा बहिः तथा अन्तः । यह शरीर जैसा भीतर है, वैसा बाहर है, जैसा बाहर है, वैसा भीतर है। भाष्यम् १२९-कामबन्धनविमुक्तेः चतुर्थ उपाय- काम-बंधन की विमुक्ति का चौथा उपाय-विचय है-निर्वेद । विचयोऽस्ति निर्वेदः-शरीरं प्रति वैराग्यकरणम् । इसका अर्थ है-शरीर के प्रति विरक्ति । शरीर का यह स्वरूप है कि शरीरस्य प्रकृतिरियं-यथा तद् अन्तः शोणितादिधातुमयं जैसा वह भीतर में रक्त आदि धातुमय और अपवित्र है, वैसा ही वह अशूचि विद्यते तथा बहिरपि, यथा बहिः शोणितादि- बाहर में है। जैसा वह बाहर में रक्त आदि धातुमय और अपवित्र है, धातुमयं अशुचि विद्यते तथा अन्तरपि । वैसा ही वह भीतर में है। १. विसुद्धिमग्ग, भाग १, पृष्ठ १६५ :-सन्धि-दर्शन-शरीर की संधियों (जोड़ों) का स्वरूप-दर्शन कर उसके यथार्थ रूप को समझना । शरीर अस्थियों का ढांचा-मात्र है, उसे देखकर उससे विरक्त होना। शरीर में एक सौ अस्सी सन्धियां मानी जाती हैं। चौदह महासन्धियां हैं-तीन दाएं हाथ की सन्धियां-कंधा, कुहनी और पहुंचा। तीन बाएं हाथ की सन्धियां। तीन दाएं पैर की सन्धियांकमर, घुटना और गुल्फ। तीन बाएं पैर को सन्धियां । एक गर्दन को सन्धि । एक कमर की सन्धि । २. (क) सुश्रुतसंहितायां सन्धिसंख्या इत्यं निर्दिष्टास्ति 'संख्यातस्तु दशोतरे द्वे शते, तेषां शाखास्वष्टषष्टिः, एकोनषष्टिः कोष्ठ, ग्रीवां प्रत्यूध्वं व्यशीतिः।' __ (सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थानम्, ५।२७) (ख) सुश्रुतसंहिता, २२८: अस्थ्नां तु सन्धयो ह्य ते केवलाः परिकीर्तिताः। पेशीस्मायुशतानां तु सन्धिसंख्या न विद्यते ॥ ३. (क) द्रष्टव्या-आयारो, २११८ सूत्रस्य व्याख्या। (ख) तुलना-अथर्ववेद २।३० : यदन्तरं तद् बाह्य', यद् बाह्य तदन्तरम् । (ग) इसका वैकल्पिक अनुवाद इस प्रकार भी किया जा सकता है साधक जैसा अन्तस् में वैसा बाहर में, जैसा बाहर में वैसा अंतस में रहे । __ कुछ दार्शनिक अन्तस् की शुद्धि पर बल देते थे और कुछ बाहर की शुद्धि पर। भगवान् एकांगी दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करते थे। उन्होंने दोनों को एक साथ देखा और कहा- केवल अंतस् की शुद्धि ही पर्याप्त नहीं है। बाहरी व्यवहार भी शुद्ध होना चाहिए। वह अंतस् का प्रतिफल है। केवल बाहरी व्यवहार का शुद्ध होना भी पर्याप्त नहीं है । अंतस की शुद्धि के बिना वह कोरा दमन बन जाता है । इसलिए अंतस् भी शुद्ध होना चाहिए। अंतस और बाहर दोनों की शुद्धि ही धार्मिक जीवन की पूर्णता है। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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