SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ० ५. लोकसार, उ० ६. सूत्र ११७-१२५ १२०. विणएत्तु सोयं णिक्खम्म, एस महं अकम्मा जाणति पासति । सं० - विनीय स्रोत: निष्क्रम्य एष महान् अकर्मा जानाति पश्यति । इन्द्रिय विषय का परित्याग कर निष्क्रमण करने वाला वह महान् साधक अकर्मा होकर जानता, देखता है। – भाष्यम् १२० गृहाद् अभिनिष्क्रमणं विधाय स्रोत :शब्दादयः इन्द्रियविषयाः तस्मिन् रागद्वेषयोविनयनं कृत्वा एष महान् अकर्मा-ध्यानस्थः ज्ञानावरणकर्ममुक्तो या जानाति पश्यति स्रोतसः साक्षात्कारं करोति ।" । १२१. पडिलेहाए णावकंखति इह आगत गति परिष्णाय ०प्रतिलेखया नायकांति इह आगति गति परिज्ञाय । मध्य १२१ - इन्द्रियविषया: पुरुषस्य आकांक्षामासाथ रागद्वेषयोः हेतवो भवन्ति । अनाकांक्षायां ते विषयाः केवलं ज्ञेया एव ते न विकृतये प्रभवन्ति । । रागद्वेषाभिभूतस्य आगतिर्गतिश्च भवति - जन्ममरण परम्परा प्रवर्तते इति परिशाय अभिनिष्क्रांतः पुरुषः प्रतिलेखया तानि स्रोतांसि नावकांक्षति । विषय की आसक्ति से जन्म-मरण का चक्र चलता है इस पर्यालोचन के द्वारा परिज्ञा कर आत्मस्थ पुरुष विषयों को आकांक्षा नहीं करता । १२२. अच्चे जाइ मरणस्स वट्टमां बक्खाय-रए । सं० - अत्येति जातिमरणस्य वृत्तमार्ग व्याख्यातरतः । सूत्र और अर्थ में रत मुनि जन्म और मृत्यु के वृत्त मार्ग का अतिक्रमण कर देता है। प्रव्रज्या के लिए घर से अभिनिष्क्रमण कर शब्द आदि इन्द्रियविषयों में होने वाले राग-द्वेष का विजयन कर वह महान् साधक कम हो जाता है, ध्यान में लीन अथवा ज्ञानावरण कर्म से मुक्त होकर जानता, देखता है— स्रोत का साक्षात्कार कर लेता है। १२४. तक्का जत्थ ण विज्जइ । सं० तर्कः यत्र न विद्यते । वहां कोई तर्क नहीं है-- आत्मा तर्कगम्य नहीं है। माष्यम् १२२ – व्याख्यातम् सूत्रागमः अर्थागमश्च, व्याख्यात का अर्थ है— सूत्रागम और अर्थागम । जो मुनि तस्मिन् रतः मुनिः जन्मनः मरणस्य च वृत्तमार्ग इसमें लीन रहता है, वह जन्म-मरण के वर्तुलाकार मार्ग का अतिक्रमण वर्तुलाकार पन्यानं अतिक्रामति । कर देता है । १२३. सव्वे सरा नियति । सं०- सर्वे स्वराः निवर्तन्ते । सब स्वर लौट आते हैं---शब्द के द्वारा आत्मा प्रतिपाद्य नहीं है । १२५. मई तत्थ ण गाहिया । सं० - मतिः तत्र न ग्राहिका । वह मति के द्वारा प्राह्य नहीं है। १. तुलना - आयारो २।३७ । २. तुलना - आयारो २।३८ । ३. आचारांग, वृत्ति, पत्र २०६, २०९ : विविधं - अनेकप्रकारं २८६ इन्द्रिय विषय पुरुष की आकांक्षा से युक्त होकर राग-द्वेष के हेतु बनते हैं। जब वे विषय आकांक्षा से युक्त नहीं होते तब वे मात्र ज्ञेय होते हैं। वे विकृति पैदा नहीं कर सकते। जो राग-द्वेष से अभिभूत होता है उस व्यक्ति के आगति और गति होती है— जन्म मरण की परम्परा चलती है—इसकी परिक्षा कर अभिनिष्कांत पर्यालोचन के द्वारा उन स्रोतों की आकांक्षा नहीं करता । Jain Education International प्रधानपुरुषार्थ तथाऽस्त्रार्थतया तपः संयमानुष्ठानार्थस्वेन (आख्यातो) व्याख्यातो मोक्षः- अशेषकर्मक्षयलक्षणो विशिष्टाका प्रदेशाख्यो वा तत्र रतो व्याख्यानरतः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy