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________________ २८८ आचारांग भाव्यम् 1 सर्वतया इति बाह्याभ्यन्तरेण कारणेन सम्यगेव तीर्थंकर के सिद्धांत का संपूर्ण रूप से निरीक्षण कर द्रव्य क्षेत्र, काल समभिज्ञाय निर्देश नातिवर्तत इत्यनुवर्तते । और भाव से अर्थात् बाह्य और आभ्यन्तर रूप से उसका पूर्ण अवबोध कर उस निर्देश का अतिक्रमण न करे। यह पूर्व सूत्र से अनुवृत्त है। ११७. इहारामं परिणाय, अल्लोण-गुत्तो परिव्वए । णिट्टियट्ठी वीरे, आगमेण सदा परक्कमेज्जासि त्ति बेमि । सं० इहारामं परिज्ञाय आसीनगुप्तः परिव्रजेत्। निष्ठितार्थः वीरः आगमेन सदा पराक्रमेत इति ब्रवीमि । इस आत्म- रमण की परिज्ञा कर, आत्म-लीन और जितेन्द्रिय होकर परिव्रजन करे। वैसा कृतार्थ, वीर मुनि सदा आगम के अनुसार पराक्रम करे, ऐसा मैं कहता हूं । भाष्यम् ११७ इह आरामं परिजानीयात्। तपोनियमसंयमे वैराग्ये परीषहोपसर्गविजये च आ समन्ताद् रमणम् - आरामः । तं ज्ञपरिज्ञया विज्ञाय प्रत्याख्यान - परिज्ञया अनारामं प्रत्याख्याय आत्मलीन इन्द्रियजयी च भवेत्। तादृशः निष्ठितार्थ: बोर: आगमेन सदा पराक्रमेत इति ब्रवीमि । ११८. उड़ढं सोता अहे सोता, तिरियं सोता वियाहिया, एते सोया विक्खाया, जेहि संगति पासा । सं०ऊ खोतांसि अः स्रोतांसि तिर्यक स्रोतांसि व्याहृतानि एतानि स्रोतांसि व्याख्यातानि वै संग इति पश्यत । ऊपर स्रोत हैं, नीचे स्रोत हैं, मध्य में स्रोत हैं। ये स्रोत कहे गए हैं। इनके द्वारा मनुष्य आसक्त होता है, यह तुम देखो । , भाष्यम् ११६ - मुखं, कर्णे, नेत्रे, नासिके - एतानि सप्तस्रोतांसि शरीरस्योर्ध्वभागे वर्तन्ते । शरीरस्य तिर्यग्भागे स्तनद्वयं वर्तते। अधोभागे गुदमे रक्तवहानि च। एतानि स्रोतांसि व्याख्यातानि । स्रोतः- इन्द्रियाणि, तद्विषयासेवनप्रयुक्तान्यङ्गानि च। नवमाध्ययने' द्विविधं स्रोतः प्रतिपादितमस्ति आदानस्रोत: अतिपातस्त्रोतश्च अत्र अत्र आदानस्रोतः प्रस्तुतमस्ति ।' एतैः स्रोतोभिः संग:- रागो भवति इति पश्यत। ११. आतु उहाए, एत्थ विरमेज्ज वेयवी । सं०] आवर्त तु उपेक्ष्य, अत्र विरमेत् वेदवि आवर्त का निरीक्षण कर ज्ञानी पुरुष उससे विरत हो जाए । जिनशासन में साधक 'आराम' की परिज्ञा करे। आराम का अर्थ है-तप, नियम, संयम, वैराग्य, परीवह और उपसर्ग विजय में संपूर्णरूप से रमण करना । उस 'आराम' को ज्ञपरिज्ञा से जानकर तथा प्रत्याख्यान परिज्ञा से अनाराम का प्रत्याख्यान कर साधक आत्मलीन और जितेन्द्रिय हो जाए। वैसा कृतकृत्य वीर निर्देशानुसार पराक्रम करे, ऐसा मैं कहता हूं । साधक सदा आगम के १. सुश्रुतसंहिता शारीरस्थानम् ५।१०: श्रवण- नयन-वदनप्राण-गुद मेवाणि नव स्रोतांसि नराणां बहिर्मुखानि, एतान्येव स्त्रीणामपराणि च श्रोणि-द्वे स्तनयोरधस्ताद् रक्तवहं । -- Jain Education International शरीर के ऊर्ध्व भाग में सात स्रोत हैं एक मुख, दो कान, दो नेत्र दो नासिकाएं शरीर के मध्य भाग में दो स्तन हैं। शरीर के अधी भाग में गुदा, लिंग और रक्तवहा (योनि) है ये स्रोत कहे गए हैं। ५ भाष्यम् ११९ - आवर्त्तः पूर्ववत् ज्ञेयः । तं उपेक्ष्यआवर्त्त की व्याख्या पूर्ववत् है । राग-द्वेष के आवर्त्त का सामीप्येन समवलोक्य वेदविद् शास्त्रज्ञ एतस्मात् निकटता से निरीक्षण कर शास्त्र पुरुष उससे विरत हो जाए। आवर्ताद् विरमेत् । । स्रोत का अर्थ है-इन्द्रियां और इन्द्रिय-विषयों के आसेवन में प्रयुक्त शरीर के अंग प्रस्तुत आगम के नौवें अध्ययन में दो प्रकार के स्रोत प्रतिपादित हैं-आदानस्रोत तथा अतिपातस्रोत। यहां आदानस्रोत प्रस्तुत है । इन स्रोतों से संग-राग होता है, इसे तुम देखो। २. आयारो, ९।१।१६ । ३. वही, ४१४५ सूत्रेऽपि आदानस्त्रोतसः प्रतिपादनमस्ति । ४. द्रष्टव्यम् - आयारो ३२६ । ५. द्रष्टव्यम् - आयारो ३।६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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