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________________ अ० ५. लोकसार, उ० ६. सूत्र ११०-११६ २८७ भाष्यम् ११३-प्रवादेन-आत्मीयदर्शनेन प्रवादं- मुनि अपने दर्शन से दूसरे दर्शन को जाने, उसकी परीक्षा अन्यदर्शनं जानीयात, तं परीक्षेत इति यावत् । तस्य करे । मध्यस्थ भाव में स्थित होकर उसकी परीक्षा करने में कोई दोष परीक्षायां सति मध्यस्थभावे नास्ति कश्चिद् दोषः । यथा नहीं है। चूणि का अभिमत है—क्या अन्य दर्शन के दोष-कथन में च चूर्णी-णण एवं परसिद्धंतदोसकहाए रागदोसा? राग-द्वेष का भाव होता है ? उत्तर में कहा गया है-उत्पथ की बात भण्णति, जहा-उप्पहमग्गं दरिसेंतस्स ण दोसो भवति, बताने में कोई दोष नहीं है। जैसे रोगी को अपथ्य भोजन करने से जहा अपत्थभोयणातो आतुरं णिवारंतस्स ण दोसो, एवं रोकना दोष नहीं कहलाता। इसी प्रकार स्व-सिद्धांत के आधार पर सएणं पवादेणं परवादे दुठे दरिसेंतस्स ण रागदोसो पर-सिद्धांत के दोष दिखाने में कोई राग-द्वेष नहीं माना जा सकता। भवति । ११४. सहसम्मइयाए, परवागरणेणं, अण्णेसि वा अंतिए सोच्चा। सं०-स्वसंस्मृत्या परव्याकरणेन अन्येषां वा अन्तिके श्रुत्वा । स्वस्मृति से, पर-आप्त के निरूपण से अथवा अन्य किसी अतिशयज्ञानी से सुनकर प्रवाद को जाना जा सकता है। भाष्यम् ११४-अन्य प्रवादानां परीक्षायै एतानि अन्य दर्शनों की परीक्षा करने में इन तीन साधनों का प्रयोग त्रीणि साधनानि प्रयोक्तव्यानि करना चाहिए। १. स्वस्मृतिः-पूर्वजन्मनः स्मृतिः । १. स्वसंस्मृति-पूर्वजन्म की स्मृति । २. परव्याकरणम्-तीर्थंकरव्याकरणम् । २. परव्याकरण-तीर्थंकरों द्वारा व्याख्यात । ३. अन्येषामन्तिके श्रवणम्-अतिशयज्ञानिना स्वत ३. अतिशयज्ञानी के द्वारा स्वतः ही निरूपित तथ्य को एव निरूपितं श्रुत्वा। सुनकर। विशेषव्या ध्यानार्थं द्रष्टव्यम्-आयारो १/१-४ विशेष विवरण के लिए देखें-आयारो १/१-४ सूत्रों का सूत्राणां भाष्यम् । भाष्य । ११५. णिद्देसं णातिवटेज्जा मेहावी। सं.-निर्देशं नातिवर्तेत मेधावी । मेधावी निर्देश का भतिक्रमण न करे। भाष्यम् ११५-प्रवादं सम्यगवधार्य मेधावी पुरुषः प्रवाद --स्व-सिद्धांत की सम्यग् अवधारणा कर मेधावी पुरुष तीर्थकरस्य निर्देशं नातिवर्तेत। तीर्थकर के निर्देश का अतिक्रमण न करे । ११६. सुपडिलेहिय सव्वतो सव्वयाए सम्ममेव समभिजाणिया। सं० --सुप्रतिलिख्य सर्वतः सर्वतया सम्यगेव समभिज्ञाय । सब प्रकार से, सम्पूर्ण रूप से निरीक्षण कर सत्य का ही अनुशीलन करना चाहिए। भाष्यम् ११६-स्वसंस्मृत्यादीनां त्रयाणां उपलब्धि- आत्मा को अथवा अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने के तीन साधन कारणानां अन्यतरेण उपलब्धिकारणेन तीर्थकरस्य हैं- स्व-स्मृति, आप्त पुरुष के निरूपण से अथवा आप्त के अतिरिक्त सिद्धांतं सुप्रतिलिख्य सर्वतः इति द्रव्यक्षेत्रकालभावैः अन्य विशिष्ट ज्ञानी के पास सुन कर। इनमें से किसी एक कारण से १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १९६-१९७ । राग-द्वेष का दृष्टिकोण नहीं होना चाहिए । अपने (ख) धर्म और दर्शन के क्षेत्र में परीक्षा मान्य रही है। प्रवाद के प्रति राग और दूसरे प्रवावों के प्रति द्वेष किसी भी प्रवाद (दर्शन) को स्वीकार करने वाला नहीं होना चाहिए। अपने प्रवाद की विशेषता और दूसरे प्रवादों की परीक्षा करना चाहता है । भगवान् दूसरे प्रवादों की होनता दिखाने का मनोभाव नहीं महावीर ने इस परीक्षा को स्वीकृति दी। उन्होंने होना चाहिए। परीक्षा-काल में पूर्ण मध्यस्थमाव कहा- मुनि अपने प्रवाद को जानकर दूसरे प्रवादों और समभाव होमा चाहिए। को जाने, उनकी परीक्षा करे। किन्तु उसके पीछे Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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