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________________ २६ आचारांग माध्यम् पुद्गलः, अस्ति तयोरनुबन्धः अस्ति तयोश्चानुबन्धहेतुः । पुद्गल है, उन दोनों का अनुबन्ध है और उनके अनुबन्ध का हेतु भी है । ६. अकरिस्सं चहं, कारवेसुं चहं, करओ पावि समणुष्णे भविस्सामि । सं०का चाहं अचीकर चाहं कुर्वतश्वापि समनुज्ञो भविष्यामि । J मैंने क्रिया की थी, करवाई थी और करने वाले का अनुमोदन किया था। मैं क्रिया करता हूं, करवाता हूं और करने वाले का अनुमोदन करता हूं। मैं क्रिया करूंगा, करवाऊंगा और करने वाले का अनुमोदन करूंगा । भाष्यम् ६ - अस्ति क्रिया, तेनास्ति कर्मबन्ध:, अस्ति कर्मबन्ध:, तेनास्ति दिशासु अनुदिशासु वा अनुसंचरणम् - अस्या अनुभूतेः प्रगाढतायां लब्धजातिस्मरो जीवो यच्चिन्तयति तस्य निर्देश: प्रस्तुतसूत्रे कृतोऽस्ति । कृतकारितानुमतिभेदात् क्रिया त्रिधा भवति । कालत्रयभेदात् सा नवधा जायते । प्रस्तुतसूत्रे संक्षिप्त शैल्या नवानामपि क्रियाणां समाहारोस्ति । प्रथमद्वितीययोः तथा नवमविकल्पस्य साक्षान्निर्देशोऽस्ति । शेषविकल्पाः इत्थं भावनीया: ३. करओ यावि समणुष्णे अभविस्सं चह ४. करेमि चह ५. कारवैमि चह 1 ६. करओ यावि समणुण्णे भवामि चह, ७. करिस्सामि चहं, ८. कारविस्सामि च । क्रिया कर्मपुद्गलानास्रवति, तेन अस्या अपरं नाम आस्रवो विद्यते । स एव वस्तुतः दिशासु अनुदिशासु वा अनुसंचरणस्य हेतुरस्ति जातिस्मृत्या अनुसंचरणहेतुबोधोऽपि जायते । माध्यम् ७ सांख्यदर्शने पुरुषशब्दस्य वाच्योस्ति आत्मा प्रस्तुतागमेऽपि अनेकेषु स्थानेषु पुरुषशब्दस्य आत्मनोऽयं प्रयोगः कृतोस्ति । लब्धजातिस्मरस्य पुरुषस्य चिन्तनक्रमोऽपि परिवर्तितो भवति । स श्रद्धा सिक्तं संवेगं समासाद्य संकल्पते – मया एताः क्रिया अथवा एते कर्म समारम्भाः परिज्ञातव्याः परिज्ञा ज्ञानं ज्ञानपूर्विका विरतिर्वा । अत एव सा द्विविधा भवति - ज्ञपरिज्ञा १. एयावंति और सव्वावंति ये दोनों मागधदेशी भाषा के शब्द 'एवाति' का अर्थ है इतने और 'सख्यायंति' का अर्थ है - सब । - एआवंती सव्वावतीति एतौ द्वौ शब्दौ मागधदेशी भाषाप्रसिद्धया एतावन्तः सर्वेऽपीत्येतत् पर्यायौ ( आचारांग वृत्ति, पत्र २५ ) । "क्रिया है इसलिए कर्म है। कर्म है इसलिए दिशाओं या अनुदिशाओं में अनुसंचरण होता है' – इस अनुभूति की प्रगाढता में जातिस्मृति ज्ञान से सम्पन्न जीव जो चिन्तन करता है उसका निर्देश प्रस्तुत सूत्र में किया गया है। Jain Education International कृत, कारित और अनुमति के भेद से क्रिया तीन प्रकार की होती है । कालत्रय के भेद से उसके नौ विकल्प बन जाते हैं । प्रस्तुत सूत्र में संक्षिप्त शैली से नो क्रियाओं का समाहार किया गया है। प्रथम, द्वितीय तथा नौवें विकल्प का स्पष्ट निर्देश हुआ है। शेष विकल्प इस प्रकार जान लेने चाहिए -- ३. मैंने करने वाले का अनुमोदन किया था । ४. मैं क्रिया करता हूँ । ५. मैं क्रिया करवाता हूं । ६. मैं करने वाले का अनुमोदन करता हूं । ७. मैं क्रिया करूंगा । ८. मैं क्रिया कराऊंगा । ७. एयाति सव्वाति' लोगंसि कम्म-समारंभा परिजाणियव्वा भवंति । सं० -- एतावन्तः सर्वे लोके कर्मसमारम्भाः परिज्ञातव्याः भवन्ति । लोक में होने वाले ये सब कर्म समारम्भ परिज्ञातव्य होते हैं-जानने और त्यागने योग्य होते हैं । क्रिया कर्मपुद्गलों का आवण करती है, इसलिए इसका दूसरा नाम आश्रव है। वही वास्तव में दिशाओं एवं अनुदिशाओं में अनुसंचरण का हेतु है जातिस्मृति ज्ञान से अनुसंचरण का हेतु भी ज्ञात हो जाता है । सांख्य दर्शन में 'पुरुष' शब्द का वाच्य है-आत्मा । प्रस्तुत आगम में भी अनेक स्थानों में 'पुरुष' शब्द का आत्मा के अर्थ में प्रयोग किया गया है। जातिस्मृति ज्ञान से सम्पन्न व्यक्ति का चिन्तन-श्रम भी बदल जाता है । वह श्रद्धासिक्त संवेग को प्राप्तकर संकल्प करता हैमुझे इन कामों अथवा कर्मसमारम्भों की परिक्षा करती है। परिक्षा के दो अर्थ है-ज्ञान अथवा ज्ञानपूर्वक विरति परिशा दो प्रकार की होती है-ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यानपरिज्ञा । इसका फलित यह होता है - २. बौद्धसाहित्ये परिजा एवं परिभाषिता अस्ति'अनाश्रयवियोगाप्ते भवानविकलीकृते। हेतुद्वयसमुद्घातात्, परिक्षा धात्वतिक्रमात् ॥ ' For Private & Personal Use Only ( अभिधम्मको ५४६८) www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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