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________________ संताप को प्राप्त होते हैं। इसाप्त होते हैं, मानसिक ते संयम स्वीकृत्यापि अवमा अ० ६.धुत, उ० १. सूत्र ४-७ ३०१ भाष्यम् ५-संयमः प्रज्ञागम्योस्ति । उक्तं चोत्तरा- संयम प्रज्ञागम्य है। उत्तराध्ययन में कहा हैध्ययने'पण्णा समिक्खए धम्म, तत्तं तत्तविणिच्छयं ।" 'धर्म, तत्त्व और तत्त्वविनिश्चय की समीक्षा प्रज्ञा से होती है।' येषां आत्मनि प्रज्ञा नास्ति ते अनात्मप्रज्ञाः यथाकथं- जिनकी आत्मा में प्रज्ञा नहीं होती वे अनात्मप्रज्ञ व्यक्ति जैसेचित् संयम स्वीकृत्यापि अवसीदन्ति, मनस्तापं व्रजन्ति । तैसे संयम स्वीकार करके भी अवसाद को प्राप्त होते हैं, मानसिक अस्य वैकल्पिकोर्थ:--यैः प्रज्ञा न प्राप्ता, केवलं बुद्धि- संताप को प्राप्त होते हैं। इसका वैकल्पिक अर्थ है-जिन्हें प्रज्ञा विलासे वर्तन्ते, ते संयम स्वीकृत्यापि अवसीदन्ति'- प्राप्त नहीं है, जो केवल बुद्धि के विलास में ही रमण करते हैं, वे प्राप्तेषु उपसर्गेषु विचलिता भवन्ति, प्राणातिपातादिषु संयम को स्वीकार करके भी अवसाद को प्राप्त होते हैं-संयम वा वर्तन्ते । भोगार्थं वा संयमान्निष्क्रमणं कुर्वन्ति, एतद् जीवन में आने वाले उपसर्गों में विचलित हो जाते हैं अथवा प्राणातियूयं पश्यत । पात आदि में प्रवृत्त हो जाते हैं अथवा वे भोगों की प्राप्ति के लिए संयम से बाहर निकल जाते हैं, यह तुम देखो। ६. से बेमि-से जहा वि कुम्मे हरए विणिविट्टचित्ते, पच्छन्न-पलासे, उम्मग्गं से णो लहइ । सं० --अथ ब्रवीमि-तद् यथाऽपि कूर्मः ह्रदे विनिविष्टचित्तः पलाशप्रच्छन्ने उन्मग्नं स नो लभते । मैं कहता हूँ; जैसे-एक कछुआ है । एक द्रह है। कछुए का चित्त ब्रह में लगा हुआ है । वह वह पलाश के पत्तों से आच्छन्न है। वह कछुआ मुक्त आकाश को देखने के लिए विवर को प्राप्त नहीं हो रहा है। भाष्यम् ६-अत्र उदाहरणम् । अथ ब्रवीमि-यथा इस प्रसंग में एक उदाहरण है। मैं उसे कहता हूं-एक कछुआ कर्मः ह्रदे निवसति । तस्य चित्तं ह्रदे परिवारे च सरोवर में रहता था। उसका चित्त उस सरोवर और अपने परिवार विनिविष्टमस्ति । स ह्रदः घनशेवालेन पद्मपत्रैर्वा में आसक्त था। वह सरोवर सघन सेवाल और कमल-पत्रों से ढका प्रच्छन्नः अस्ति । तस्य एकस्मिन् देशे अकस्मादेकं विवरं रहता था। एक बार अकस्मात् ही उसके एक भाग में विवर हो गया। जातम् । तत्र मुक्तमाकाशं दृष्ट्वा स अतीव हृष्टो वह कछुआ वहां आ पहुंचा। उसने उस विवर से मुक्त-आकाश को जातः। तेन चिन्तितं-सकलं परिजनं आनीय एतद् देखा और अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने सोचा--मैं अपने सारे परिवार दर्शयामि। स गतः । ह्रदस्य अतिविस्तीर्णतया स तद् को यहां लाकर यह अनुपम दृश्य दिखलाऊ । वह गया। परिवार को विवरं अन्वेषयन्नपि नो लभते । लेकर आया और विवर की खोज करने लगा । परन्तु उस सरोवर की अति विस्तीर्णता के कारण खोजने पर भी वह विवर उसे नहीं मिला । ___ अस्योपनयः-कर्म इव जीवः, ह्रद इव संसारः, इसका उपनय यह है- कछुए की भांति है जीव । ह्रद की शेवालमिव कर्म, विवरमिव साधुत्वम् । असौ जीवः तरह है संसार । सेवाल की तरह है कर्म । विवर की भांति है साधुत्व । कथंचिद् तद् लब्ध्वापि पुनः संसारमभ्येति, तदा वह जीव जैसे-तैसे साधुत्व को प्राप्त करके भी पुनः संसार में आता है मूर्छाया गहनतया निविण्णोपि पुनः साधुत्वं नो लभते। और विरक्त होने पर भी मूर्छा की सघनता के कारण पुनः साधुत्व को प्राप्त नहीं कर सकता। ७. भंजगा इव सन्निवसं णो चयंति, एवं पेगे-अणेगरूवेहि कुलेहि जाया, रूवेहि सत्ता कलुणं थणंति, णियाणओ ते ण लभंति मोक्खं । सं०-भञ्जगाः इव सन्निवेशं नो त्यजन्ति एवमपि एके --अनेकरूपेषु कुलेषु जाता:, रूपेषु सक्ताः करुणं स्तनन्ति निदानतः ते न लभन्ते मोक्षम् । जैसे वृक्ष अपने स्थान को नहीं छोड़ते, वैसे ही कुछ लोग गृहवास को नहीं छोड़ते। वे अनेक प्रकार के कुलों में उत्पन्न होकर, रूपादि विषयों में आसक्त होकर करण विलाप करते हैं। वे बंधन से मुक्त नहीं हो पाते। १. उत्तरायणाणि २३।२५। हितकरी पग्णा। २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २०१ : जेहि इह अप्पोकता (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २११ : नात्मने हिता प्रज्ञा पण्णा ते अत्तपन्ना ण अत्तपण्णा अणत्तपण्णा येषां ते अनात्मप्रज्ञाः। अपत्तपण्णा वा, अहवा अत्ता-इट्ठा अम्हत्तेण अप्पणी ३. प्राकृतत्वात् व्यत्ययः । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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