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________________ ३०२ आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ७-भञ्जगा -वृक्षाः । यथा वृक्षाः शस्त्रैः भंजग का अर्थ है वृक्ष । जैसे वृक्ष शस्त्रों के द्वारा छेदे जाने छिद्यमाना अपि सन्निवेशं न त्यजन्ति, एवं एके दारि- पर भी अपने स्थान को नहीं छोड़ते, वैसे ही कुछ लोग दरिद्रता आदि द्रयादिकष्टैरभिभूता अपि गृहवासं न त्यजन्ति । ते कष्टों से अभिभूत होकर भी गृहवास को नहीं छोड़ते। वे अनेक प्रकार अनेकरूपेषु उच्चनीचेषु कुलेषु जाता अपि रूपेषु- के ऊंच-नीच कुलों में उत्पन्न होकर भी शरीर अथवा इन्द्रियविषयों में शरीरेषु इन्द्रियविषयेषु वा सक्ताः प्राप्तेषु कष्टेषु करुणं आसक्त होकर प्राप्त कष्टों में करुण क्रन्दन करते हैं, फिर भी वे विलपन्ति, तथापि ते गृहवासं न त्यजन्ति । ते निदानात् गृहवास को नहीं छोड़ते। वे बन्धन से मुक्ति नहीं पा सकते । अथवा -बन्धनात् मोक्षं न लभन्ते । अथवा मोक्षः-संयमः, ते मोक्ष का अर्थ है--संयम । वे स्नेह के बंधन को तोड़ कर संयम को स्नेहबन्धनं छित्त्वा संयम न लभन्ते । प्राप्त नहीं कर सकते। ८. अह पास तेहि-तेहिं कुलेहि आयत्ताए जाया गंडी अदुवा कोढी, रायंसी अवमारियं । काणियं झिमियं चेव, कुणियं खुज्जियं तहा ।। उरि पास मूयं च, सूणिअंच गिलासिणि। वेवई पीढसपि च, सिलिवयं महुमेहणि॥ सोलस एते रोगा, अक्खाया अणुपुव्वसो। अह णं फुसंति आयंका, फासा य असमंजसा ।। मरणं तेसि संपेहाए, उववायं चयणं च णच्चा। परिपागं च संपेहाए, तं सुणेह जहा-तहा ॥ सं०--अथ पश्य तेषु-तेषु कुलेषु आत्मत्वेन जाताः गण्डी अथवा कुष्ठी, राजयक्ष्मी अपस्मारिकः। काणकः जाड्यौं चैव, कुणित्वं कुब्जितां तथा ।। उदरिणं पश्य मूकं च, शूनिकं च ग्रासिनीं। वेपकिन पीठसर्पिणं च, श्लीपदं मधुमेहनिनम् ।। षोडश एते रोगाः आख्याता अनुपूर्वशः। अथ न स्पृशन्ति आतङ्काः स्पर्शाश्च असमञ्जसाः॥ मरणं तेषां संप्रेक्ष्य, उपपातं च्यवनं च ज्ञात्वा । परिपाकं च संप्रेक्ष्य, तं शृणुत यथा तथा ।। तू देख, नाना कुलों में आत्म-भाव से उत्पन्न व्यक्ति रोग-प्रस्त हो जाते हैं । १. गण्डमाला, २. कोढ, ३. राजयक्ष्मा, ४. अपस्मार (मृगी या मूर्छा), ५. काणत्व, ६. जड़ता-अवयवों का जड़ होना, ७. हाथ या पैर की विकलता (कूणित्व), ८. कुबड़ापन, ९. उदररोग, १०. गूंगापन, ११. शोथ, १२. भस्मक रोग, १३. कम्पनवात, १४. पीठसपी-पंगुता, १५. श्लीपद हाथीपगा, १६. मधुमेह--ये सोलह रोग क्रमशः कहे गए हैं। कभी-कभी आतंक और अनिष्ट स्पर्श प्राप्त होते हैं। उन मनुष्यों की मृत्यु का पर्यालोचन कर, उपपात और च्यवन को जान कर तथा कर्म के विपाक का पर्यालोचन कर उसके यथार्थ रूप को सुनो। भाष्यम् ८--अथ त्वं पश्य, तेषु तेषु उच्चनीचेषु तू देख, नाना ऊंचे-नीचे कुलों में अपने-अपने कर्मों के उदय कुलेषु आत्मत्वेन-स्वस्वकर्मोदयेन जाता रोगग्रस्ता से उत्पन्न व्यक्ति रोगग्रस्त हो जाते हैं । वे गृहवास में रहते हुए भी भवन्ति, न च गृहवासे वसन्तोऽपि भोगान् भोक्तुं भोगों का उपभोग नहीं कर सकते । प्रसंगवश सूत्रकार रोगग्रस्त शक्नुवन्ति । प्रासङ्गिकत्वात् सूत्रकारः साक्षाद् रोग- व्यक्तियों का साक्षात् निर्देश करते हैं - ग्रस्तानां निर्देशं करोति, यथा-- (१) गण्डी-गण्डमालया ग्रस्तः । १. गंडी-गंडमाला रोग से ग्रस्त । (२) कुष्ठी । २. कुष्ठी-कुष्ठ रोग से ग्रस्त । (३) राजयक्ष्मी--राजयक्ष्माक्रान्तः । ३. राजयक्ष्मी-क्षय रोग से ग्रस्त । (४) अपस्मारिक:- अपस्माररोगाक्रान्तः ।' ४. अपस्मार-मृगी या मूर्छा रोग से ग्रस्त । (५) काणक:-एकाक्षः । ५. काणत्व से ग्रस्त । (६) जड:-सर्वेषु अवयवेषु जडतामापन्नः । ६. शरीर के अवयवों में जड़ता से ग्रस्त । १.देशीशब्दोयं प्रतीयते । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २०२ : णिवा बंधणे, णिवाणं कम्म, अहवा कसाया हफासा, तेहिं णो लमंति मोक्खं, मोक्खो संजमो। ३. माधवनिदान, राजयक्ष्मारोगनिदान, श्लोक १: वेगरोधात् क्षयाच्चैव साहसाद्विषमाशनात् । त्रिदोषो जायते यक्मा गदो हेतुचतुष्टयात् ॥ ४. माधवनिदान, अपस्माररोगनिदान, श्लोक १: तमःप्रवेशः संरम्भो दोषोद्रेकहतस्मृतिः। अपस्मार इति ज्ञेयो गदो घोरश्चतुर्विधः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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