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________________ ३०० आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ३–स तेषां मुक्तिमार्ग ज्ञानदर्शनचारित्रात्मक वह संबुद्ध पुरुष उनके लिए ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक मुक्तिकीर्तयति, ये सन्ति मुक्तिमार्गस्य आराधनायै समुत्थिताः, मार्ग का प्रतिपादन करता है जो मुक्तिमार्ग की आराधना के लिए ये सन्ति निक्षिप्तदण्डा:-परित्यक्तमनोवाक्कायदण्डाः, समुत्थित हुए हैं, जो निक्षिप्तदंड-मानसिक, वाचिक और कायिक ये सन्ति समाहिताः-एकाग्रमनसः, ये सन्ति हिंसा से उपरत हैं, जो समाहित - एकाग्रचित्त वाले हैं, जो प्रज्ञानवन्तः-बुद्धिसंपन्नाः प्रज्ञासंपन्ना वा। प्रज्ञानवान् -बुद्धिसंपन्न अथवा प्रज्ञासंपन्न हैं। प्रस्तुतसूत्रे मुक्तिमार्ग शुश्रूषणां चतस्रः अर्हताः सन्ति प्रस्तुत आलापक में मुक्तिमार्ग को सुनने अथवा उसकी प्रतिपादिताः आराधना करने के इच्छुक व्यक्तियों की चार योग्यताओं का प्रतिपादन किया है-- उत्थिताः उत्थातुकामा वा-एषा प्रथमा अर्हता । १. जो मुक्ति-मार्ग के लिए उद्यत हैं अथवा उद्यत होना चाहते हैं-यह पहली योग्यता है । सिद्धमनोवाक्कायाः मनोवाक्कायसिद्धि कर्तकामा २. जो मानसिक, वाचिक तथा कायिक सिद्धि को प्राप्त कर वा-एषा द्वितीया अर्हता। चुके हैं अथवा सिद्धि करना चाहते हैं-यह दूसरी योग्यता समाहिता समाधि प्राप्तुकामा वा-एषा तृतीया अर्हता। बुद्धिसंपन्नाः प्रज्ञासंपन्नाः वा-एषा चतुर्थी अर्हता। ३. जो समाहित हैं अथवा समाधि प्राप्त करना चाहते हैं-- यह तीसरी योग्यता है। ४. जो बुद्धिसंपन्न हैं अथवा प्रज्ञासंपन्न हैं---यह चौथी योग्यता अत्र चूणौं महत्त्वपूर्ण सूचनमस्ति-'इतरे इस प्रसंग में चूणि में महत्त्वपूर्ण सूचना है-यदि शिष्य सुत्तत्यहाणी, ण य गिण्हंति-यदि शिष्याः श्रोतारो वा अथवा श्रोता बुद्धिहीन होते हैं, तब सूत्र और अर्थ की हानि होती बुद्धिहीनाः स्युस्तदा सूत्रार्थयोर्हानिर्भवति । ते आचार्यैः है । वे आचार्यों द्वारा प्रतिपादित किए जाने वाले मुक्तिमार्ग को ग्रहण प्रतिपाद्यमानं मुक्तिमार्ग नो ग्रहीतं क्षमन्ते । नहीं कर सकते । ४. एवं पेगे महावीरा विप्परक्कमति । सं०-एवमपि एके महावीराः विपराक्रमन्ते । इस प्रकार कुछ महावीर पुरुष विशेष पराक्रम करते हैं। भाष्यम् ४-एवं एके महावीराः मुक्तिमार्ग श्रुत्वा, इस प्रकार कुछेक महावीर पुरुष मुक्तिमार्ग को सुनकर संयम अपिशब्दात् केचन प्रत्येकबुद्धा लब्धजातिस्मरणा वा की साधना के लिए विशेष पराक्रम करते हैं । तथा प्रत्येकबुद्ध अथवा अश्रत्वापि विपराक्रमन्ते-संयमसाधनायै यतन्ते । जातिस्मृति ज्ञान से संपन्न व्यक्ति बिना सुने ही संयम की आराधना में स्थानाने अस्य संवादित्वं दृश्यते-दोहि ठाणेहि आया तत्पर हो जाते हैं । स्थानांग सूत्र में इसका संवादी कथन प्राप्त होता केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए, तं जहा-सोच्चच्चेव, है-सुनने और जानने- इन दो स्थानों से आत्मा केवलीप्रज्ञप्त धर्म अभिसमेच्चच्चेव। को सुन पाता है। ५. पासह एगेवसीयमाणे अणत्तपण्णे । सं० पश्यत एकान् अवसीदतः अनात्मप्रज्ञान् । तुम देखो, जो आत्म-प्रज्ञा से शून्य हैं, वे अवसाद को प्राप्त हो रहे हैं । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २०१ : मिक्खित्तसत्थेसु, सत्थं छुरियादिवाबारो, छिदणा भिदणा, अहवा णिक्खित्तदंडाणं पंच रायककुहा आरोहिता। २. वही, पृष्ठ २०१ : उट्ठियाई उछेउकामाणि वा । ३. वही, पृष्ठ २०१। ४. वही, पृष्ठ २०१ : अविसद्दा असुणित्तावि पत्तेयबुद्ध जाइस्सरणादि । ५. अंगसुत्ताणि १, ठाणं, २१६३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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