SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छठं अज्झयणं : धुयं छठा अध्ययन : धुत पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक १. ओबुज्झमाणे इह माणवेसु आघाइ से परे। सं०-अवबुध्यमानः इह मानवेषु आख्याति स नरः । वह सम्बुद्ध पुरुष मनुष्यों के बीच में आख्यान करता है। भाष्यम् १ -बहवो जना भवन्ति अज्ञानिनः, स्वल्पे बहुत पुरुष अज्ञानी होते हैं, थोडे पुरुष ज्ञानी होते हैं और भवन्ति ज्ञानिनः। तेष्वपि स्वल्पे आख्यातारः। उन ज्ञानी पुरुषों में भी कुछ ही पुरुष आख्यान करने वाले होते हैं। कश्चिन्नरः अवबुध्यमानो भवति, स इह मानवेषु कोई एक पुरुष सम्बुद्ध होता है और वह मनुष्यों में आख्यान करता आख्याति । किमाख्याति तस्य निरूपणं अग्रिमसूत्रे है। वह क्या आख्यान करता है उसका निर्देश अग्रिम सूत्र में हैक्रियते२. जस्सिमाओ जाईओ सव्वओ सुपडिलेहियाओ भवंति, अक्खाइ से णाणमणेलिसं । सं०-यस्येमाः जातयः सर्वतः सुप्रतिलिखिताः भवन्ति, आख्याति स ज्ञानमनीदृशम् । जिसे ये जीव-जातियां सर्वतः ज्ञात होती हैं, वही पुरुष असाधारण ज्ञान का आख्यान करता है। भाष्यम् २-यः कश्चिद् आख्याता न भवति । यस्य हर कोई व्यक्ति आख्याता नहीं होता । जिसे ये एकेन्द्रिय इमा एकेन्द्रियादयः पञ्च जीवजातयः सर्वतः-द्रव्यक्षेत्र- आदि पांचों जीव-जातियां द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के विकल्पों कालभावादिभेदैः सुदृष्टा भवन्ति स अनीदशं से भली-भांति ज्ञात होती हैं, वही पुरुष अनीदृश (अन्तःप्रज्ञागम्य) ज्ञानमाख्याति । ज्ञान का आख्यान करता है। ईदृशम्-स्थूलदृष्टिगम्यम् । अनीदृशम्'--अन्त:- ईदृश का अर्थ है- स्थूल दृष्टिगम्य और अनीदृश का अर्थ प्रज्ञागम्यम् । है-आन्तरिक प्रज्ञागम्य ।। आत्मनः मुक्तिमार्गस्य अहिंसादीनां च ज्ञानं आत्मा, मोक्षमार्ग तथा अहिंसा आदि का ज्ञान अन्तःप्रज्ञा से अन्तःप्रज्ञाग्राह्यत्वात् अनीदृशं ज्ञानं भवति । ग्राह्य होता है, इसलिए वह अनीदृश ज्ञान कहलाता है । ३. से किति तेसि समुट्टियाणं णिक्खित्तदंडाणं समाहियाणं पण्णाणमंताणं इह मुत्तिमग्गं । सं०-स कीर्तयति तेषां समुत्थितानां निक्षिप्तदण्डानां समाहितानां प्रज्ञानवतां इह मुक्तिमार्गम् । जो मनुष्य समुत्थित हैं, मन, वाणी और शरीर से संयत हैं, जिनका मन एकाग्र है और जो प्रज्ञावान् हैं, उनके लिए वह सम्मुख पुरुष मुक्तिमार्ग का आख्यान करता है। १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २०० : णाणंति जहत्थोवलंभ, तं केरिसं ? रलतोरेकत्वे (उबलभे कायब्वे) असरिसं, तं च पंचविहं, अहवा असरिसं केवलणाणं तेण असरिसमेव सुयनाणं कधेति, वंसणं चरित्तं तवं विणयं च कहेइ। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २११: ज्ञानं जायन्ते परिच्छिद्यन्ते जीवावयः पदार्थाः येन तज्ज्ञानंमत्यादि पञ्चधा, किम्भूतं ज्ञानमाख्याति ? 'अनीदृशं' नान्यत्रेदशमस्तीत्यनीवृशं, यदि वा सकलसंशयापनयनेन धर्ममाचक्षाण एव स आत्मनो ज्ञानमनन्यसदृशमाख्याति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy