SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६८ उत्तराध्ययने एकीभावसाधनाया अयं मुख्योपायो निर्दिष्ट: । अनेन संयमः संवरः समाधिश्च सिध्यति ।" प्रस्तुताध्ययने धर्मप्रवचनस्य महत्त्वपूर्ण निर्देशा लभ्यन्ते । साम्प्रदायिकतायाः कोलाहलपूर्ण वातावरणे एतत् सूत्रं कियत् सटीकमस्ति 'अणुवौद्द भिक्खू धम्ममा इक्खमाणे -- जो अत्तानं आसाएज्जा, जो परं आसाएज्जा, यो अम्गाई पाचा सुपाई जीबाई सत्ताई आताएन्जा ।" स अस्मिन् धर्मस्य तत्त्वानां समुच्चयो वर्तते । दशविधस्य श्रमणधर्मस्य आधाररूपः पूर्वरूपो वा वर्तते।' प्रस्तुताध्ययने 'बेयवी' इति पदं भगवतो महावीरस्य व्यापक दृष्टिकोण परिलक्षयति । तस्मिन् समये वेदविदः अत्यन्तं गौरवपूर्ण स्थानमासीत्। भगवता वेदस्य वेदविदश्च प्रामाण्यं न खलु स्वीकृतं तथापि तो नावज्ञाती किन्तु अर्थान्तरन्यासेन तौ प्रतिष्ठितौ । * तस्मिन् समये अनेके वादा प्रचलिता आसन् यथा-- आत्मवादः, ज्ञानवाद: वेदवादः, धर्मवादः, ब्रह्मवादः, लोकवादः, कर्मवादः, क्रियावादश्च । भगवता एतेषां वादानां समन्वयं कृत्वा अभिनवा दिक् प्रदर्शिता, ते आचाररूपेण परिवर्तिताश्च । यथा अद्वैतवादस्य अहिंसायाः प्रयोगः कृतः 'तुमंस नाम सच्चेच जं तवं ति मनसि । ५ - अस्मिन् असन्दीनद्वीप' - स्वाख्यातधर्म' - स्थितात्मा'अबहिर्लेश्य'-दृष्टिमान्”-रूक्ष" - त्रुट* - फलगावतष्टी - प्रभृतीनां पदार्थानां विशेष प्रयोगो दृश्यते । १. उत्तरायणाणि, २९ ४० । २. आयारो, ६।१०४ । अस्मिन् तपसोऽनेके प्रकारा उपदिष्टाः, यैः कर्मणां प्रकम्पनं निर्जरा वा जायते । तैरिति फलितं भवति, यत्र विशिष्टा तितिक्षा लाघवं तपश्च अभिसमन्वागतं भवति तत्रास्ति धुतम् । अवधूतपरम्पराया मुलं घुतवादे अन्वेषणोयमस्ति । ३. वही, ६।१०२ । ४. वही, ६।१०१ । 3 ५. वही, ५।१०१ । ६. वही, ६।१०५ । ७. वही, ६।५९ । Jain Education International आचारांग भाष्यम् है । उत्तराध्ययन सूत्र में इस अकेलेपन को एकाकी साधना का मुख्य उपाय बतलाया है। इससे संयम, संवर और समाधि सधती है । इस अध्ययन में धर्म-प्रवचन करने के महत्त्वपूर्ण निर्देश प्राप्त होते हैं । सांप्रदायिकता के कोलाहलपूर्ण वातावरण में यह आलापक कितना सटीक है'विवेकपूर्वक धर्म प्रवचन करता हुआ भिक्षुन स्वयं को बाधा पहुंचाता है, न दूसरों को बाधा पहुंचाता है और न अन्य प्राणी, भूत, जीव और सरवों को बाधा पहुंचाता है।' यह अध्ययन धर्म के अनेक तत्त्वों का संग्राहक है । वह तत्त्वसंग्रह दश प्रकार के भ्रमण धर्म का आधारभूत अथवा पूर्वरूप है । प्रस्तुत अध्ययन में 'बेयवी - वेदविद्' यह पद भगवान् महावीर के व्यापक दृष्टिकोण को परिलक्षित करता है । उस काल में वेदों को जानने वालों का अत्यंत गौरवपूर्ण स्थान था । भगवान् ने वेद और वेदशों का प्रामाण्य स्वीकार नहीं किया, फिर भी दोनों की अवज्ञा न कर, दोनों को भिन्न अर्थ में प्रतिष्ठित किया । उस काल में अनेकवाद प्रचलित थे, जैसे आत्मवाद, ज्ञानवाद, वेदवाद, धर्मवाद, ब्रह्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद । भगवान् महावीर ने इन वादों का समन्वय कर एक नई दिशा प्रदर्शित की और इन वादों को आचाररूप में परिवर्तित कर दिया। जैसे अद्वैतवाद का अहिंसा के प्रसंग में प्रयोग कर कहा'जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है।' इस अध्ययन में असंदीनद्वीप, स्वाख्यातधर्म, स्थितात्मा, अबहिर्लेश्य, दृष्टिमान्, रूक्ष, त्रुट, फलगावतष्टी आदि पदों का विशेष प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। इसमें तप के अनेक प्रकार उपदिष्ट हैं, जिनसे कर्मों का प्रकंपन अथवा निर्जरा होती है। उनसे यह फलित होता है - जहां विशिष्ट तितिक्षा लाघव और तप ये तीनों सम्यक् प्रकार से प्राप्त हो जाते हैं, वहां धुत की साधना होती है। अवधूत परंपरा क मूल 'धुतवाद' में खोजा जा सकता है । . वही, ६।१०६ । ९. वही, ६।१०६ । १०. वही, ६।१०७ । ८. ११. वही, ६।११० । १२. वही, ६।११२ | १३. वही, ६।११३ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy