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अ० २. लोकविचय, उ० ६. सूत्र १७८-१८२
१५३ अभोगी नोवलिप्पइ ।'
लिप्त नहीं होता।' गीतायामपि योगयुक्तस्य क्रियां कुर्वाणस्यापि लेपः गीता में भी यह प्रतिपादित है कि योगयुक्त साधक क्रिया करता न भवतीति प्रतिपादितमस्ति----
हुआ भी लिप्त नहीं होतायोगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
जो योगयुक्त है, विशुद्ध है, विजितात्मा और जितेन्द्रिय है, जो सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥' सभी प्राणियों को अपने समान समझता है, वह क्रिया करता हुआ भी
लिप्त नहीं होता।
१८१. से मेहावी अणुग्घायणस्स खेयण्णे, जे य बंधप्पमोक्खमण्णसी।
सं०-स मेधावी अनुरातनस्य क्षेत्रज्ञः, यश्च बन्धप्रमोक्षान्वेषी । जो बन्ध से मुक्त होने की खोज करता है, वह मेधावी अहिंसा के मर्म को जान लेता है।
भाष्यम् १८१-य कर्मबन्धस्य मोक्षमन्वेषयति स जो कर्मबन्ध की मुक्ति का अन्वेषण करता है वह मेधावी पुरुष मेधावी अनुरातनस्य ज्ञानं करोति । उद्घातनम् - अनुद्घातन को जान लेता है। उद्घातन का अर्थ है-हिंसा। हिंसा। अनुरातनम्-अहिंसा। हिंसातः कर्मबन्धो अनुरातन का अर्थ है-अहिंसा। हिंसा से कर्मबन्ध होता है। अतः भवति, तेन बन्धप्रमोक्षाय अहिंसायाः तद्हेतुभूतस्य कर्मबन्ध की मुक्ति के लिए अहिंसा और उसका हेतुभूत अपरिग्रह का अपरिग्रहस्य च ज्ञानमनिवार्यमस्ति ।
ज्ञान अनिवार्य होता है। चौं अनुद्धातनपदस्य
चूणि में 'अनुद्घातन' पद की व्याख्या भिन्न प्रकार से हैविद्यते-अणं-कर्म, तस्य उद्घातनम्--उत्पादनम्, 'अण' का अर्थ है - कर्म, उसका उद्घातन अर्थात् उत्पादन । अनुद्घातन इति अणग्घायणं । स मेधावी कर्मोत्पादनस्य हेतुं का अर्थ है-कर्म का उत्पादन । वह मेधावी कर्म के उत्पादन के हेतु जानाति ।
को जानता है। १८२. कुसले पुण णो बद्धे, णो मुक्के ।
सं०-कुशलः पुनः नो बद्धः नो मुक्तः । कुशल न बद्ध होता है और न मुक्त होता है ।
भाष्यम् १८२-बन्धप्रमोक्षस्य अन्वेषणायां स्वभावत बन्धन-मुक्ति की खोज में सहज ही यह विकल्प उत्पन्न एव एष विकल्पः उत्पद्यते--अस्मिन् परिग्रहहिंसाकुले होता है कि इस परिग्रह और हिंसा से व्याप्त लोक में क्या बन्धन-मुक्ति लोके कि बन्धप्रमोक्षः संभवति? अस्य प्रश्नस्य संभव है ? इस प्रश्न को समाहित करते हुए सूत्रकार कहते हैं-कुशल समाधानं कुर्वन सूत्रकारः प्रवक्ति-कुशलः--सर्वपरिज्ञा- का अर्थ है-सर्वपरिज्ञाचारी पुरुष। वह जीवन्मुक्त भी कहलाता है। चारी पुरुषः । असौ जीवन्मुक्तः इत्यपि उच्यते । स च वह इस संसार में जीवन-यापन करता हुआ भी कर्मबन्ध की हेतुभूत अस्मिन लोके जीवन्नपि कर्महेतुभूतया पदार्थासक्त्या पदार्थासक्ति से बद्ध नहीं होता और जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए नो बद्धो भवति, जीवनयात्रोपयोगिभिः पदार्थः नो मुक्तो उपयोगी पदार्थों से मुक्त नहीं होता। भवति ।
स अप्रमत्तभावेन प्रवृत्ति कुर्वाणोऽपि नो बद्धो भवति, वह अप्रमत्तभाव से प्रवृत्ति करता हुआ भी बद्ध नहीं होता, वह प्रवृत्ते! मुक्तो भवति।
प्रवृत्ति से मुक्त नहीं होता। १. उत्तरज्झयणाणि, २५॥३९ ।
में आने वाले कष्टों का पारगामी और देश-काल को २. गीता ५७ शांकरभाष्य, पृष्ठ २१७ ....स तत्रैव वर्तमा
समझने याला मुनि 'कुशल' कहलाता है। तीर्थंकर को भी नोपि लोकसंग्रहाय कर्म कुर्वन्नपि न लिप्यते - न कर्मभि
कुशल कहा जाता है। बंध्यत इत्यर्थः । न चासौ परमार्थतः करोतीत्येतत् ।
५. तुलनीय, पातंजलयोगदर्शन, भाष्य, ४॥३० : क्लेशकर्म
निवृत्तौ जीवन्नेव विद्वान् विमुक्तो भवति । ३. प्राकृते 'ऋण' शब्दस्य 'अणं' इति रूपं जायते ।
६. तुलनीय, पातंजल योगदर्शन, भाष्य, २०२७ : एतां सप्त४. कुशल का अर्थ है-ज्ञानी। धर्म-कथा में दक्ष, विभिन्न
विधा प्रान्तभूमिप्रज्ञामनुपश्यन्पुरुषः कुशल इत्याख्यायते, दर्शनों का पारगामी, अप्रतिबद्धविहारी, कथनी और करनी
प्रतिप्रसवेऽपि चित्तस्य मुक्तः कुशल इत्येव भवति गुणातीतमें समान, निद्रा एवं इन्द्रियों पर विजय पाने वाला, साधना
स्वादिति।
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