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________________ १५४ आचारांगभाष्यम् चणी वृत्तौ च अन्येप्यर्थाः उपनीताः सन्ति चूणि और वृत्ति में इसके दूसरे अर्थ भी प्रस्तुत हुए हैंअथवा स अविरत्यादिभिः अप्रशस्तै वैः नो अथवा वह पुरुष अविरति आदि अप्रशस्त भावों से बद्ध नहीं बद्धो भवति, चरित्रतपःप्रभृतिभिः प्रशस्तैर्भावैः नो मुक्तो होता और चारित्र, तप आदि प्रशस्त भावों से मुक्त नहीं होता। भवति । ___ अथवा स जीवन्मुक्तत्वात् दुःखानुभूत्या नो बद्धो अथवा वह जीवन-मुक्त होने के कारण दुःखानुभूति से बद्ध नहीं भवति, दुःखमये संसारे निवसन् न दुःखाद् मुक्तो भवति । होता और दुःखमय संसार में रहता हुआ दुःख से मुक्त भी नहीं होता। कुशलः--बीतरागः । स च कषायहेतुकेन कर्मणा कुशल का अर्थ है-वीतराग । वह कषाय के हेतुभूत कर्म अथवा साम्परायिक्या क्रियया वा नो बद्धयते। तदेव भवबीजं साम्परायिक क्रिया से नहीं बंधता । वही भवबीज-जन्म-मरण का बीज वर्तते । स पुन: आवरणादीनां सद्भावात् नो मुक्तो होता है। वह कर्मों के आवरण आदि की विद्यमानता के कारण मुक्त भवति। भी नहीं होता। शल-केवली। स च आवरणादिभिनों बद्धो कुशल का अर्थ है-केवली। वह आवरण पैदा करने वाले भवति, भवोपग्राहिकर्मभिर्नो मुक्तो भवति । कर्मों से बद्ध नहीं होता तो भवोपनाही कर्मों से मुक्त भी नहीं होता। १८३. से जं च आरभे, जं च णारभे, अणारद्धं च णारभे। सं०-स यच्च आरभते यच्च नारभते, अनारब्धं च नारभते । वह किसी प्रवृत्ति का आचरण करता है और किसी का आचरण नहीं करता, मुनि उसके द्वारा अनाचीर्ण का आचरण न करे। माष्यम् १८३-बन्धमोक्षाय विधिनिषेधावपि बन्धन-मुक्ति के लिए विधि और निषेध-दोनों को जानना परिज्ञातव्यौ भवतः । कुशल: यद् आरभते यद् आचरणं आवश्यक है। कुशल पुरुष जिसका आचरण करता है, वह विधि है, करोति स विधिः, यच्च नारभते-यद् नाचरति स जिसका आचरण नहीं करता, वह निषेध है। ये दोनों बन्धन-मुक्ति के निषेधः । एतौ बन्धप्रमोक्षस्य हेतू । अनारब्धस्य आचरणं हेतु हैं । अनाचीर्ण का माचरण करना बन्धन का हेतु है। इसलिए जो बन्धहेतुर्भवति । अतः बन्धप्रमोक्षार्थी कुशलपुरुषेण बन्धन-मुक्ति चाहता है, उसे कुशल पुरुष द्वारा अनाचीर्ण का आचरण अनारब्धं-अनाचीर्णं नारभेत। तदारब्धं तु नहीं करना चाहिए। उसके द्वारा आचीर्ण विधि का यथाशक्य आचरण यथाशक्यमाचीर्ण स्यात् किन्तु तेन अनारब्धं तु किया जा सकता है, किन्तु उसके द्वारा अनाचीर्ण विधि का आचरण नाचरितव्यमेव इत्यवधारणार्थं 'अणारदं च गारभे' तो नहीं ही करना चाहिए-इस अवधारणा के लिए 'अणारखं च इति सूत्रवाक्यस्योपन्यासः । जारों-इस सूत्र-वाक्य का उपन्यास किया गया है। १८४. छणं छणं परिण्णाय, लोगसण्णं च सव्वसो। सं०-क्षणं क्षणं परिज्ञाय, लोकसंज्ञां च सर्वशः। पुरुष प्रत्येक हिंसा-स्थान को जाने और छोड़े। उसी प्रकार लोक-संज्ञा को सब प्रकार से जाने और छोड़े। भाष्यम् १८४-लोकसंज्ञा-परिग्रहः पदार्थासक्तिर्वा। लोकसंज्ञा का अर्थ है-परिग्रह या पदार्थासक्ति । लोकसंज्ञा तां सर्वशः परिज्ञाय-हिंसां जनयतीति विवेकं कृत्वा को पूर्णरूप से जानकर अर्थात् इससे हिंसा उत्पन्न होती है-यह विवेक सा प्रत्याख्यातव्या तथा तज्जनिता हिंसापि कर लोकसंज्ञा का प्रत्याख्यान करना चाहिए । उसी प्रकार लोकसंज्ञा से परिज्ञाय प्रत्याख्यातव्या। प्रस्तुतसूत्रे परिग्रहस्य उत्पन्न होने वाली हिंसा का परिज्ञान कर उसका भी प्रत्याख्यान करना हिंसायाश्च कार्यकारणभाव: परिलक्ष्यते । लोकसंज्ञा चाहिए । प्रस्तुत सूत्र में परिग्रह और हिंसा का कार्य-कारणभाव हिंसायाः कारणमस्ति। परिलक्षित होता है। लोकसंज्ञा हिंसा का कारण है। १.(क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १००:छणं छणं परिणाए छणि हिंसाए जस्स जेणप्पगारेण छणणं भवति जहा सत्यपरिणाए एक्केक्कस्स कायस्स सत्थप्पगारा भणिता तं छणं दुविहाए परिणाए। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १३४ : भणु हिंसायां क्षणनं क्षणो–हिंसनं, कारणे कार्योपचारात् येन येन प्रकारेण हिंसा उत्पद्यते, तत् तत् जपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिजया परिहरेत् । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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