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आचारांगभाष्यम् आसोत । एवंविधं भोजनं मया भोक्तव्यं अथवा एवंविधं का भोजन करना चाहिए अथवा इस प्रकार का नहीं करना चाहिए न भोक्तव्यं, अस्मिन् विषये संकल्पमुक्त आसीत् । अनेन इस विषय में भगवान् संकल्प-मुक्त थे। इसके द्वारा भगवान् का रसभगवतो रसपरित्यागसंज्ञकं तपः अभिहितम् । १. आभाहतम्।
परित्याग नामक तप का कथन हुआ है। ___इदानीं कायक्लेशाभिधं तपः उच्यते । भगवान् रेणौ
अब कायक्लेश तप बताया जा रहा है। आंख में मिट्टी बा रजसि पतितेऽपि अक्षि न प्रमाजितवान् ।' मशका- का कण अथवा रज गिर जाने पर भी भगवान् आंख का प्रमार्जन नहीं दिभिः दष्टोपि न गात्रं कण्डयितवान् ।
करते थे। मच्छर आदि के काटने पर भी वे शरीर को नहीं खुजलाते
थे।
अस्यानुसारी उपदेशः
इसका संवादी उपदेश है'से भिक्खू कालण्णे बलण्णे मायण्णे खेयण्णे खणयण्णे विण- 'वह भिक्षु कालज्ञ, बलज्ञ, मात्रज्ञ, क्षेत्रज्ञ, क्षणज्ञ, विनयज्ञ, यण्ण समयण्णे भावणे, परिग्गहं अममायमाणे, कालेणदाई, समयज्ञ, भावज्ञ, परिग्रह पर ममत्व न करने वाला, काल में उत्थान अपडिण्णे ।३
करने वाला और अप्रतिज्ञ होता है।' ___ 'लद्धे आहारे अणगारे मायं जाणेज्जा, से जहेयं भगवया 'आहार प्राप्त होने पर मुनि मात्रा को जाने, भगवान् ने जैसे पवेइयं ।
इसका निर्देश किया है।' 'से भिवखू वा भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा 'भिक्षु या भिक्षुणी अशन, पान, खाद्य या स्वाध का सेवन साइमं वा आहारेमाणे णो वामाओ हणुयाओ दाहिणं हणुयं करती हुई बाएं जबड़े से दाहिने जबड़े में न ले जाए, आस्वाद लेती संचारज्जा आसाएमाणे, दाहिणाओ वाहणुयाओ वामं हणुयं णो हुई तथा दाएं जबड़े से बाएं जबड़े में न ले जाए, आस्वाद लेती हुई। संचारज्जा आसाएमाणे, से अणासापमाणे । ५
वह अनास्वादवृत्ति से आहार करे।' २१. अप्पं तिरियं पेहाए, अप्पं पिट्टओ उपेहाए । अप्पं वुइएऽपडिभाणी, पंथपेही चरे जयमाणे॥ सं०-अल्पं तिर्यक् प्रेक्षते, अल्पं पृष्ठतः उत्प्रेक्षते । अल्पमुक्तेप्रतिभाषी, पन्थप्रेक्षी चरति यतमानः । भगवान् चलते हुए न तिरछे (दाएं-बाएं) देखते थे और न पीछे देखते थे । वे मौन चलते थे। पूछने पर भी बहुत कम बोलते थे। वे पंथ को देखते हुए प्राणियों की अहिंसा के प्रति जागरूक होकर चलते थे।
भाष्यन् २१-अस्मिन् पद्ये भगवतो गमनविधि: इस पद्य में भगवान् की गमनविधि निरूपित है। गमनविधि निरूपितोऽस्ति । पुरतो दष्टि विन्यास: मौनं च-सूत्रद्वय- के दो सूत्र हैं-सामने दृष्टि का विन्यास करना और चलते समय मौन १. अत्र चूर्णी किञ्चिदधिकं व्याख्यातमस्ति-न वा पाये की दृष्टि से वे संकल्प करते थे, जैसे—'आज मुझे उड़द धुवति, हत्थे परे लेवाडं भोत्तुं मणिबंधाओ जाव धोवति ।
का भोजन करना है।' (आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१०)
भगवान् की आंखें अनिमिष थीं। वे पलक नहीं झपकाते । २. भगवान् का शरीर विशिष्ट स्वास्थ्य-शक्ति से युक्त था।
उनकी आंखों में कोई रजकण गिर जाता, तो वे उसे उनके शरीर में साधारणतया अजीर्ण आदि दोष होने की निकालते नहीं थे। चींटी, मच्छर या जानवर आदि के सम्भावना नहीं थी। फिर भी वे मात्रा-युक्त भोजन करते
काटने पर वे शरीर को खुजलाते नहीं थे। यह सब वे सहज थे । मात्रा से अतिरिक्त भोजन करने वाला शुभ ध्यान साधना के लिए करते थे। 'जो जैसा घटित होता है, वैसा आदि क्रियाओं का विधिवत् आचरण नहीं कर सकता।
हो, उसमें मैं कोई हस्तक्षेप न करूं'-इस सहज साधना भगवान् शुभ ध्यान आदि के लिए मात्रा-युक्त भोजन करते का प्रयोग वे कर रहे थे।
३. आयारो, २१११०। भगवान् गृहवास में भी भोजन के प्रति उत्सुक नहीं थे। ४. वही, २१११३। वे प्रारम्भ से ही इस विषय में अनासक्त थे। प्रवजित होने
५. वही, ८१०१। पर साधना-काल में वह अनासक्ति चरम बिन्दु पर पहुंच
६. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१० : 'कयो एहि ? जाहि वा ? गई।
कतो वा मग्गो ? एवं पुच्छितो अप्पं पडिभणति, अमावे 'मुझे इस प्रकार का भोजन करना है और इस प्रकार का
दट्ठव्वो अप्पसद्दो, मोणेण अच्छति।' नहीं करना,' ऐसा संकल्प भगवान् नहीं करते थे। साधना
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