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अ० ६. उपधानश्रुत, उ० १. गाथा १८-२०
परः गृहस्य | परपात्रे भोजनमपि न कृतम् । स्वयं च पात्रं न धृतम् ।'
यस्मिन् भोगे भोजनस्य प्रमाणं अवमं भवति स अवमान मित्युच्यते । भगवान् तादृशं भोगं परिवर्जितवान्, सरसभोजनस्य स्मरणमपि न कृतवान् ।
'संघ' भोगः ।
अच्छि को मज्जिया णोवि य कंद्रयये मुणी गावं ॥
२०. मायणे असण- पाणस्स, णाणुगिछे रसे अपडणे सं०-- मात्राश: अन्नपानस्य नानुमृद्ध रसेषु अप्रतितः। अयपि को प्रामाक्षत्, नोषि च कण्डूविष्ट मुनिः गात्रम् ।
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भाष्यम् २० - भगवान् अशनपानयोर्मात्रां ज्ञात्वा भुक्तवान् पीतवान् । स रसेषु अनुगृद्धः नासीत्, अत एव मात्राश आसीत् । स रसेषु नानुएद्धः, अत एव अप्रतिश' १. (क) अत्र पूणिनिदिष्टा परम्परा दिवं देवा संपवणं हितं तं साहियं पर बंधे देव धरितं गति पायं तं मुदा परवत्यं परिहारितमविण घरि वा केंद्र इच्छति से वत्वं तस्स तत् सेसं परवत्यं जं गाहितं णासेवितंपि तहा सपत्तं तस्स पाणिपत्तं, सेसं परपत्तं, तत्थ
भगवान् अशन और पान की मात्रा को जानते थे । वे रसों में लोलुप नहीं थे। वे भोजन के प्रति संकल्प नहीं करते थे । वे आंख
का भी प्रमार्जन नहीं करते थे। वे शरीर को भी नहीं खुजलाते थे।
ण जित, तो केद्र इच्छति सपत्तो धम्मो पणपति भुंजितं, तेण पढमपारणं परपत्ते भुत्तं, तेण परं पाणिपत्ते, पगारो तहेव, अतिक्कतं वावि, गोसालेण किर तंतुवायसालाए मणियं अहं तव भोवणं आणेमि पिते का पि भगवता निच्छितं उप्पण्णनाणस्स लोहज्जो आणेति'धन्नो सो लोधज्जो खंतिखमो'। किं तत्थ ता ण अडियवं ? भणियं देविदचकवट्टी मंडलिया ईसरा तलवरा य अभिगच्छति जिणिदं गोयरचरितं ण सो अडति ।। छउमत्थकाले अडियं । (आचारांग चूर्णि, पृष्ठ ३०८-३०९ ) (ख) वृत्ती परशन्दस्य प्रधानमित्यर्थः कृतोस्ति परवस्त्रंप्रधानं वस्त्रं परस्य वा वस्त्रं परवस्त्रं नासेवते तथा परपात्रेस न भुङ्क्ते । ( आचारांग वृत्ति पत्र २७७) (ग) चूर्णि के अनुसार भगवान् ने दीक्षा के समय एक वस्त्र रखा था। तेरह मास बाद उसे विसर्जित कर दिया। फिर उन्होंने किसी वस्त्र का सेवन नहीं किया।
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'पर' का अर्थ है – गृहस्थ । उन्होंने परपात्र गृहस्थ के पात्र में भोजन भी नहीं किया। स्वयं ने पात्र नहीं रखा ।
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भगवान् ने दीक्षित होने के बाद प्रथम पारण में गृहस्थ के पात्र में भोजन किया था। उसके बाद वे 'पाणिपात्र' हो गए । फिर किसी के पात्र में भोजन नहीं किया। एक बार भगवान् नालन्दा की तन्तुवायशाला में विहार कर रहे थे। उस समय गोशालक ने कहा- 'भंते! मैं आपके लिए भोजन लाई' 'यह गृहस्थ के पात्र में भोजन लाएगा' ऐसा सोचकर भगवान् ने उसका निषेध कर दिया । केवलज्ञान
जिस भोज में भोजन का प्रमाण न्यून हो जाता है, वह अवमान भोज कहलाता है । भगवान् ने वैसे भोज का परिवर्जन किया और सरस भोजन की स्मृति भी नहीं की ।
'संखडि' का अर्थ है- जीमनवार ।
भगवान् अशन और पान की मात्रा को जानकर भोजन करते थे, पानी पीते थे। वे रसों में लोलुप नहीं थे, इसीलिए वे मात्रज्ञ थे । ने रसों में आयुक्त नहीं थे, इसीलिए वे अप्रतिज्ञ थे मुझे इस प्रकार
उत्पन्न होने पर भगवान् तीर्थंकर हो गये । तब उनके लिए लोहा नाम का मुनि गृहस्थों के घर से भोजन लाता था । किन्तु भगवान् उसे हाथ में लेकर ही भोजन करते थेपात्र में नहीं करते थे ।
प्रस्तुत वर्णन साधना कालीन चर्या का है। इसलिए लोहायें द्वारा लाया जाने वाला भोजन यहां विवक्षित नहीं है । ( द्रष्टव्य-- आचारांग चूर्णि, पृष्ठ ३०९ )
२. (क) आचारांग चूर्ण, पृष्ठ ३०९ : 'ओमं माणं करेति, ओमाणं जं जस्स दिन्नति तं जणं विज्जति सह सुपदचखप्यवादीहि आहारकंखीहि संतेहि परिपुन्नेहि चरति ।'
(ख) वृत्तौ ( पत्र २७७ ) अवमानपदस्यार्थः समीचीनः नास्ति ।
(ग) आचारचूलायां ( ११३४-३५) दशर्वकालिकचूलायां (२६) भूमिकृतस्यार्थस्य समर्थन प्राप्यते'वह भोज जहां गणना से अधिक खाने वालों की उपस्थिति होने के कारण खाद्य कम हो जाए, अवमान कहलाता है। जहां 'परिगणित' लोगों के लिए भोजन बने वहां से भिक्षा लेने पर भोजकर अपने निमंत्रित अतिथियों के लिए फिर
से दूसरा भोजन बनाता है या भिक्षु के लिए दूसरा भोजन बनाता है या देता ही नहीं, इस प्रकार अनेक दोषों की संभावना से इसका निषेध है ।
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(दसवेलियं भूलिका २६ का टिप्पण ३. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ ३०९-१० : 'अपडणे ण तस्स एवं पडिण्णा आसी जहा मते एवं विहा भिक्खा भोज्जा ण वा मोठ्या इति तत्र अभिमाहपदमा आसी जहा कुम्मासा मए भोत्तव्वा इति ।'
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