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________________ ४२० आचारांगभाष्यम् अस्यानुसारी उपदेश: इसका संबादी उपदेश है-- 'तं परिणाय मेहावी व सयं एतेहि काएहि दंड समारं- 'मेधावी उस कर्म-समारम्भ का विवेक कर इन सूक्ष्म जीवभेज्जा, जेवण्णेहि एतेहिं काहि दंड समारंभावेज्जा, नेवण्णे कायों के प्रति स्वयं दण्ड का प्रयोग न करे, दूसरों से न करवाए और एतेहिं काएहि दंड समारंभंते वि समणुजाणेज्जा ।" करने वालों का अनुमोदन न करे।' 'जहेत्थ कुसले णोवलिपिज्जासि ।। 'जिससे कुशल पुरुष इस परिग्रह में लिप्त न हो।' 'मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावातए । 'साधक अपने आपको कामभोगों के मध्य में न फंसाए।' १८. अहाकडं न से सेवे, सव्वसो कम्मुणा य अदक्खू । जं किचि पावगं भगवं, तं अकुव्वं वियर्ड भंजित्था ॥ सं० आधाकृतं न स सेवते, सर्वशः कर्मणा च अद्राक्षीत् । यत्किञ्चिद् पापकं भगवान्, तमकुर्वन् विकटमभुक्त ।। भगवान् ने देखा कि मुनि के लिए बना हुआ भोजन लेने से सब प्रकार से कर्म का बंध होता है, इसलिए उसका सेवन नहीं किया। भगवान् आहार-सम्बन्धी किसी भी पाप का सेवन नहीं करते थे। वे प्रासुक भोजन करते थे। भाष्यम् १८ इदानीं आहारचर्या । 'अहाकडं' इति अब भगवान् महावीर की आहारचर्या का प्रकरण प्रस्तुत है। आहाकडस्य हस्वीकृतं रूपमस्ति । भिक्षु आधाय- 'अहाकड' यह 'आहाकड' का ह्रस्वीकृत रूप है । आधाकृत भोजन का मनसीकृत्य कृत आहार आधाकृत इत्युच्यते । भगवान् अर्थ है-मुनि को लक्ष्य कर बनाया हुआ भोजन । भगवान् ने आधाकृत आधाकृतं न गृहीतवान् । तद्ग्रहणे सर्वशः इति सर्वभावेन आहार नहीं लिया। उन्होंने देखा कि उसको ग्रहण करने से सब प्रकार कर्मबन्धमद्राक्षीत् । पापक-अशुद्धम् । भगवता से कर्मबंध होता है । पापक का अर्थ है-अशुद्ध । जो कुछ पापक था, यत्किञ्चित् पापकं तत् परिहृतम् । विकटं विकृतमिति भगवान् ने उसका परिहार किया। भगवान् ने विकट अर्थात् प्रासुक प्रासुकं भोजनं कृतम् । भोजन किया। अस्यानुसारी उपदेशः इसका संवादी उपदेश है'से णाइए, णाइआवए, ण समणुजाणइ ।'५ 'मुनि आसक्ति बढाने वाले आहार को स्वयं ग्रहण न करे, दूसरे से ग्रहण न करवाए और ग्रहण करने वाले का अनुमोदन न करे।' 'सव्वामगंधं परिण्णाय, णिरामगंधो परिव्वए।" 'मुनि सब प्रकार की भोजन की आसक्ति का परित्याग कर अनासक्त रहता हुआ परिव्रजन करे।' १६. णो सेवतीय परवत्थं, परपाए वि से ण मुंजित्था। परिवज्जियाण ओमाणं, गच्छति संखडि' असरणाए॥ सं.-नो सेवते यः परवस्त्रं, परपात्रेऽपि स नाऽभुक्त। परिवावमानं गच्छति 'संखडि' अस्मरणाय । भगवान् स्वयं अवस्त्र थे और किसी दूसरे के वस्त्र का सेवन नहीं करते थे। वे स्वयं पात्र नहीं रखते थे और किसी दूसरे के पात्र में नहीं खाते थे। वे 'अवमान-मोज' में आहार के लिए नहीं जाते थे। वे सरस भोजन की स्मृति नहीं करते थे। भाष्यम् १९. साम्प्रतं उपकरणचर्या भिक्षाचर्या च। अब उपकरणचर्या तथा भिक्षाचर्या का प्रकरण है । प्रव्रज्या भगवतः प्रव्रज्याकाले एकशाटकत्वमासीत् इति के समय भगवान् एकशाटक थे, यह चौथे श्लोक में प्रतिपादित है। चतुर्थश्लोके प्रतिपादितमस्ति । अत्र परवस्त्रं न सेवितमिति प्रस्तुत आलापक में यह सूचित किया गया है कि भगवान् ने परवस्त्र सूचितम् । का उपयोग नहीं किया। १. आयारो, ८1१८ । २. वही, २०४८ । ३. वही, २११३३ । ४. (क) चू! 'पावग' पदस्य अनेके अर्थाः कृताः सन्तिपावगमिति असुद्धं ....... अहवा पावगमिति मंसमज्जादि, तत्थ अकुटवं ण आसति, जं च अण्णं संजोयणादिपमाणइंगालधूमणिक्कारणादि आहारअस्सितं पावं तं अकुव्वं । (आचारांग चूणि, पृष्ठ ३०८) (ख) वृत्तौ पापकं पापोपादानकारणं इत्येव उल्लिखितमस्ति । (आचारांग वृत्ति, पत्र २७७) ५. आयारो, २११०७॥ ६. वही, २।१०८। ७. देशीयशब्दः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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