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अ० ६. उपधानश्रुत, उ० १. गाथा १४- १७
भाग्यम् १६ मेधावी भगवान् द्विविधं क्रियावाद' अपवादं च समेत्य आयकाश्यपेन अर्हता पऋषभेण आख्यातां अनीदृशीं कर्मक्षयहेतुभूतां क्रियां समादृतवान् । आदानम् इन्द्रियाणि परिग्रहो वा अतिपातः हिंसा । योगः प्रवृत्तिः आदानातिपातयोः श्रोतांसि प्रवृत्तिच सर्वप्रकारेण ज्ञात्वा तत् परिहृतवान् ।
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१७. अयातिषं अणाउट्टे सयमण्णेस अकरणवाए जस्सित्थिओ परिणाया, सम्यकम्मावहाओ से अवक्लू ।। सं०- अतिपातिकां न आवर्तेत, स्वयमन्येषां अकरणतया । यस्य स्त्रियः परिज्ञाताः सर्वकर्मावहाः स अद्राक्षीत् ।
भगवान् स्वयं प्राणवध नहीं करते और दूसरों से नहीं करवाते थे । भगवान् ने देखा -- स्त्रियां सब कर्मों का आवहन करने वाली हैं, इसलिए उन्होंने स्त्रियों का परिहार किया।
भाष्यम् १७ अतिपातिका हिंसा, तो अाउट्टे न आवर्तेत न कुर्यादित्यर्थः स्त्रियः सर्वकर्माविहाः एवं करे स अद्राक्षीत् ।
अतिपातिक का अर्थ है हिंसा । अणाउट्ट का अर्थ है-न स्त्रियां सब कर्मों का आवहन करने वाली है ऐसा भगवान् ने
I देखा ।
१. सूत्रकृतांग १।१२।२०, २१ : अत्ताण जो जाणइ जो य लोगं,
जो सासयं जाण असासयं च अहो वि सत्ताण विउट्टणं च
जो आर्गात जाणइऽणागति च । जाति मरणं च चयणोववातं ॥ जो आसवं जाणति संवरं च ।
दुक्खं च जो जाणइ णिज्जरं च,
सो मासिउमरिहति किरियवादं ॥ २. (क) भगवान् गृहवास में रहते हुए अनासक्त जीवन जी रहे थे, तब उनके चाचा सुपावं, भाई नन्दीवर्द्धन तथा अन्य मित्रों ने कहा- 'तुम शब्द, रूप आदि विषयों का भोग क्यों नहीं करते ?'
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भगवान् ने कहा 'इन्द्रियां स्रोत हैं। इनसे बन्धन आता है । मेरी आत्मा स्वतन्त्रता के लिए छटपटा रही है । इसलिए में इन विषयों का भोग करने में असमर्थ हूं।' यह सुनकर उन्होंने कहा 'कुमार तुम ठंडा पानी क्यों नहीं पीते ? सचित्त आहार क्यों नहीं करते ?' भगवान् ने उत्तर दिया- 'हिंसा स्रोत है। उससे बन्धन आता है । मेरी आत्मा स्वतन्त्रता के लिए छटपटा रही है इसलिए मैं मेरे ही जैसे जीवों का प्राण-वियोजन करने में असमर्थ हूं ।'
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मेधावी भगवान ने श्रियावाद और अभियाबाद —दोनों की समीक्षा कर आकाश्यप अर्हत् रूपम के द्वारा प्ररूपित, दूसरों के द्वारा अप्रतिपादित कर्मक्षय की हेतुभूत क्रिया को स्वीकार किया था आदान - का अर्थ है - इन्द्रियां अथवा परिग्रह । अतिपात अर्थात् हिंसा योग का अर्थ है-प्रवृति आदान और बतिपात के स्रोतों तथा प्रवृत्ति को सब प्रकार से जानकर भगवान् ने उनका परिहार किया ।
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उन्होंने कहा 'कुमार ! तुम हर समय ध्यान की मुद्रा बैठे रहते हो। मनोरंजन क्यों नहीं करते ?' भगवान् ने कहा – 'मन, वाणी और शरीर—ये तीनों
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स्त्रोत हैं। उनसे बन्धन आता है। मेरी आत्मा स्वतंत्रता के लिए छटपटा रही है। इसलिए मैं उनकी चंचलता को सहारा देने में असमर्थ हूं ।'
उन्होंने कहा 'कुमार तुम स्नान क्यों नहीं करते है भूमि पर वर्षो सोते हो ?"
भगवान् ने कहा-'देहासक्ति और आराम ये दोनों खत हैं। मैं स्रोत का संवरण चाहता हूं। इसलिए मैंने इस चर्या को स्वीकार किया है।
(ख) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३०७ : केति भणति - जया फिर सो बंधूहि पम्मविओ परिसे चिट्ठति तदा फागुआहारो, सुपासनं दिवचणप्रभृतीहि सुहीहि भणितो कि पहासि ण व सौतोद पियसि ? भूमिए सुवसिय सचि आहारं आहारेसि, पुच्छितो परिणति 'मादाणतोतं अतिवातसोत' तब बच्चो, 'अतिपत्तियं अगा' तहेच, अह इत्थीओ कि परिहारसित्ति भणितो यदि भणतिजस्सित्यीओ परिणाला अहवा उपदेशगमेव । '
३. (क) आचारांग चूर्णि पृष्ठ ३०७ : अतिवादिज्जति जेण सो अतिवादो हिसाब, आउट्टणं करणं तं अतिवात भाउवृति सयं, अण्णेहि अविकरणाएत्ति ण करेति अन्नेहि नाणुमोदति ।
(ख) वृत्तिकृता प्रथमपादस्य मिनोर्थः कृतोस्ति आकुट्टिः हिसा नाकुट्टित्वाद्धिरहियर्थः किमुताम् अतिकान्ता पातकादतिपातिका निर्दोषा तामाथित्य स्वतोऽन्येषां चाकरणतया - - अध्यापारतया प्रवृत्त इति ।'
( आचारांग वृत्ति, पत्र २७७ )
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