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________________ ४१८ आचारांगभाष्यम् १४. अदु थावरा तसत्ताए, तसजीवा य थावरत्ताए । अदु सव्वजोणिया सत्ता, कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला ॥ सं० ---- 'अदु' स्थावराः सतायां, सजीवाश्च स्थावरतायाम् । 'अदु' सर्वयोनिकाः सत्त्वाः, कर्मणा कल्पिताः पृथक् बालाः। स्थावर जीव प्रस-योनि में उत्पन्न हो जाते हैं। त्रस जीव स्थावर-योनि में उत्पन्न हो जाते हैं। जीव सर्वयोनिक हैं प्रत्येक जीव प्रत्येक योनि में उत्पन्न हो सकता है । अज्ञानी जीव अपने ही कर्मों के द्वारा विविध रूपों की रचना करते रहते हैं। भाष्यम् १४ --सत्त्वाः सर्वयोनिकाः सन्ति । स्थावराः जीव सर्वयोनिक हैं- प्रत्येक जीव प्रत्येक योनि में उत्पन्न हो सकाये उत्पद्यन्ते, प्रसाश्च स्थावरकाये उत्पद्यन्ते । ते सकता है । स्थावर जीव त्रसकाय में उत्पन्न हो सकते हैं और त्रसजीव बाला: स्वकीयेन अज्ञानेन कर्मणां रचनां कुर्वन्ति स्व- स्थावरकाय में उत्पन्न हो सकते हैं। वे अज्ञानी जीव अपने अज्ञान से कर्मानुरूपां गतिं च प्रविशन्ति ।' कर्मों की रचना करते हैं और अपने कर्म के अनुरूप गति में प्रवेश करते १५. भगवं च एवं मन्नेसि, सोवहिए ह लुप्पती बाले। कम्मं च सव्वसो णच्चा, तं पडियाइक्खे पावगं भगवं ॥ सं०-भगवान् च एवममन्यत, सोपधिकः खलु लुप्यते बालः । कर्म च सर्वशः ज्ञात्वा, तं प्रत्याख्यात् पापकं भगवान् । 'अज्ञानी मनुष्य परिग्रह का संचय कर छिन्न-भिन्न होता है, इस प्रकार अनुचिन्तन कर तथा सब प्रकार से कर्म को जानकर भगवान् ने पाप का प्रत्याख्यान किया। भाष्यम् १५-भगवानेवं अमन्यत-सोपधिक: बालः भगवान् ऐसा मानते थे-अज्ञानी मनुष्य परिग्रह के कारण चौरादिभिलप्यते -मार्गादिषु अपहृतो लुण्टितो वा चोर आदि के द्वारा मार्ग में अपहृत होता है अथवा लूटा जाता है। भवति । उपधिः --वस्त्रादि । कर्म-प्रवृत्तिः, सर्वशः- उपधि का अर्थ है- वस्त्र आदि । कायवाङ्मनोभेदेन तद् ज्ञात्वा भगवान् पापकं कर्म कर्म का अर्थ है-प्रवृत्ति । उसके तीन प्रकार हैं-कायिक, वाचिक, प्रत्याख्यातवान् । और मानसिक । उसको सब प्रकार से जानकर भगवान् ने पापकर्म का प्रत्याख्यान कर दिया। पापक कर्म-हिंसादि। पापकर्म अर्थात् हिंसा आदि । अस्यानुसारी उपदेशः इसका संवादी उपदेश है'णिहाय दंडं पाणेहि, पावं कम्मं अकुब्वमाणे, एस महं 'जो प्राणियों के प्रति अहिंसक है और पाप-कर्म नहीं करता, अगथे वियाहिए।" वह महान् अग्रन्थ-ग्रन्थिमुक्त कहलाता है।' १६. विहं समिच्च मेहावी, किरियमक्खायणेलिसि जाणी। आयाणसोयमतिवायसोयं, जोगं च सव्वसो णच्चा ॥ सं०-द्विविधं समेत्य मेधावी, क्रियामाख्याय अनीदृशीं ज्ञानी । आदानस्रोतः अतिपातस्रोतः, योगं च सर्वशः ज्ञात्वा । ज्ञानी और मेधावी भगवान् ने क्रियावाद -आत्मवाद और अक्रियावाद-अनात्मवाद-दोनों की समीक्षा कर तथा इन्द्रियों के स्रोत, हिंसा के स्रोत और योग (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति) को सब प्रकार से जानकर दूसरों के द्वारा अप्रतिपादित क्रिया का प्रतिपादन किया। १. उस समय यह लौकिक मान्यता प्रचलित थी कि स्त्री अगले जन्म में भी स्त्री होती है और पुरुष पुरुष होता है, धनी अगले जन्म में भी धनी और मुनि मुनि होता है। भगवान् महावीर ने इस लौकिक मान्यता को अस्वीकार कर 'सर्वयोनिक-उत्पाद' के सिद्धांत की स्थापना की। उसके अनुसार कर्म की विविधता के कारण भावी जन्म में योनि-परिवर्तन होता रहता है। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३०६ : मणूसा लुप्पंति, चोरराय अग्गिमावीहि आलुष्पति, परत्थ कम्मोवहीमादाय नगरा दिएसु लुप्पति, कम्मग्गाओ लुप्पति, मोक्खसुहायो य लुप्पति। ३. वही, पृष्ठ ३०६ : कम्मं अट्ठविहं, तं सव्वसो सव्वपगारेहि पदिसठितिअणुभावतो जच्चा, जो य जस्स बंधहेऊ कम्प्रफलविवागं च । ४. वही, पृष्ठ ३०६-३०७ : पावगं हिंसादि, अणवज्जो तवो कम्मादि, ण तं पच्चक्खंति । ५. आयारो, ८।३३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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