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अ० ६. उपधानश्रुत, उ० १. गाथा २१-२३. उ० २. गाथा १
४२३ मिदं गमन विधेः । भगवान् न प्रतिभणति-पृष्टोऽपि न रहना । भगवान् पूछने पर भी नहीं बोलते थे। ब्रूते । अस्यानुसारी उपदेशः
इसका संवादी उपदेश है'जयंबिहारी चित्तणिवाती पंथणिज्झाती पलीवाहरे, पासिय 'मुनि संयमपूर्वक चित्त को गति में एकान कर पथ पर दृष्टि पाणे गच्छेज्जा।"
टिका कर चले। जीव-जन्तु को देखकर पैर को संकुचित कर ले और मार्ग में आने वाले प्राणियों को देखकर चले।'
२२. सिसिरंसि अद्धपडिबन्ने, तं वोसज्ज वत्थमणगारे । पसारित्त बाहं परक्कमे, णो अवलंबियाण कंधंसि ॥
सं०-शिशिरे अध्वप्रतिपन्नः, तत् व्युत्सृज्य वस्त्रमनगारः । प्रसार्य बाहु पराक्रमते, नोऽवलम्ब्य स्कन्धे । भगवान् वस्त्र का विसर्जन कर चुके थे। वे शिशिर ऋतु में चलते, तब हाथों को फैलाकर चलते थे। उन्हें कंधों में समेट कर नहीं चलते।
२३. एस विही अणुक्कतो, माहणेण मईमया । अपडिण्णेण वीरेण, कासवेण महेसिणा।।-त्ति बेमि । सं०-एषः विधिः अनुक्रान्तः, माहनेन मतिमता । अप्रतिज्ञेन वीरेण काश्यपेन महर्षिणा । इति ब्रवीमि । मतिमान् माहन काश्यपगोत्री महर्षि महावीर ने संकल्प-मुक्त होकर पूर्व प्रतिपादित विधि का आचरण किया। --ऐसा मैं कहता
भाष्यम् २२-२३ - स्पष्टम् ।।
स्पष्ट है।
बोओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक
१. चरियासणाई सेज्जाओ, एगतियाओ जाओ बुइयाओ। आइक्ख ताई सयणासणाई, जाई सेवित्था से महावीरा ॥ सं०-चर्यासनानि शय्याः एककाः याः उक्ताः । आख्याहि तानि शयनासनानि यानि असेबिष्ट स महावीरः । (जम्बू ने सुधर्मा से पूछा--) भंते ! चर्या के प्रसंग में कुछ आसन और वास-स्थान बतलाए गए हैं, किन्तु अब उन सब आसनों और वास-स्थानों को बताएं, जिनका महावीर भगवान् ने उपयोग किया था।
भाष्यम् १–इदानीं शय्याप्रकरणम् । भगवान् महावीरः अब शय्या का प्रकरण है। शिष्य ने पूछा-भगवान् महावीर यानि शयनासनानि सेवितवान् तानि ज्ञातुमिच्छामि इति ने जिन शयन-आसनों का सेवन किया उनके विषय में जानना चाहता पृष्टे आचार्य आह ...
हूं। यह पूछने पर आचार्य ने कहा
१. आयारो, २६९ । २. भगवान् ने गृहवास के दो वर्ष तथा साधनाकाल के साढे
बारह वर्षों में संकल्प-मुक्ति की साधना की। मैं अमुक भोजन करूंगा, अमुक नहीं करूंगा। मैं अमुक स्थान में रहूंगा, अमुक स्थान में नहीं रहूंगा। अमुक समय में नोंद लूंगा, अमुक समय में नहीं लूंगा'- इस प्रकार शरीर और उसकी आवश्यकतापूर्ति के प्रति उनके मन में कोई प्रतिज्ञा नहीं थी, कोई संकल्प नहीं था। साधना के अनुकूल सहज
भाव से जो घटित होता, उसी को वे स्वीकार कर लेते। ३. अत्र चूणौ शय्याविषये किञ्चिद् विशिष्टमुल्लिखितमस्ति'ण वि भगवतो आहारवत् सेज्जाभिग्गहा णियमा आसी, पडिमाभिग्गहकाले तु सिज्जाभिग्गहो आसी, जहा एगराईयाए बहिया गामादीणं ठिओ आसी, सुसाणे अन्नयरे वा ठाणे, अहाभावकमेण जत्थेव तत्थ चउत्थी पोरिसी ओगाढा भवति तत्थेव अणुन्नवित्ता ठितवान्, तंजहा - आसणसभापवासु ।' (आचारांग चूणि, पृष्ठ ३११)
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