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अ० ३. शीतोष्णीय, उ० २-३. सूत्र ५०-५५
५३. तम्हा ण हंता ण विधायए ।
सं० तस्मात् न हन्ता न विघातयेत् ।
इसलिए जीवों का स्वयं हनन न करे और न दूसरों से करवाए । भाष्यम् ५३ तस्माद् उक्तहेतुद्रयं समीक्ष्य न स्वयं भूतग्रामं हन्यात् न चान्यैविघातयेत् ।
५४. जमिणं अष्णमण्णवितिमिच्छाए, पडिलेहाए ण करेइ पार्थ कम्मं किं तत्थ मुणी कारणं सिया ?
सं० - यदिदं अन्योन्यविचिकित्सया प्रतिलिख्य न करोति पापं कर्म, किं तत्र मुनिः कारणं स्थात् ? जो परस्पर एक-दूसरे की आशंका से या दूसरे के देखते हुए पाप कर्म नहीं करता, क्या उसका कारण ज्ञानी होना है ?
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भाष्यम् ५४ – पापकर्मणः अकरणं द्विहेतुकं भवति - अपात्मज्ञानहेतुकं अन्योन्यविचिकित्सा हेतुकं विचिकित्सा नाम शंका, भयं लज्जा वा । परस्परं विचिकित्सामाश्रित्य कश्चित् पापं कर्म न करोति अथवा प्रतिलेखा प्रेक्षामाश्रित्य परः पश्यतीति कृत्वा पापं कर्म न करोति किं तव मुनिः कारणं स्यात् ? काक्वा पृष्टस्य प्रश्नस्य इदमुत्तरं भवति -- यद् विचिकित्सासंप्रयोगेण पापकर्मणोऽकरणे मुनिः कारणं न स्यात् न तदध्यात्मज्ञानहेतुकमिति तात्पर्यम् ।
माध्यम् ५५ समतामुपेक्ष्य' पापकर्मणोऽकरणं, तत्र मुनिः कारणं स्वात् । समतापूर्वकं पापकर्मणो विरमण मध्यात्मज्ञानहेतुकं भवति समभावः समता परेषा प्रत्यक्ष परोक्षं च समाना प्रवृत्तिर्वा समता ययोक्तं दशवेकालिकसूत्रे' दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वात्तेवा जागरमाणे वा । " यः परैर्दृश्यमानो यथा हिंसादीन् श्रवान् परिहरति तथा परैरदृश्यमानोऽपि तान् नाचरति तेन तस्वात्मनो विशिष्ट प्रसादो जायते विप्रसाद:- चित्तस्य प्रसन्नता निर्मलता वा । यश्च प्रत्यकिञ्चिदन्यत् करोति परोक्षे च किञ्चिदन्यदा चरति तस्य चित्तं मायाचारेण मलिनं भवति कुतस्तत्र प्रसन्नता भवेत् ?
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५५. समयं तत्थुवेहाए, अप्पाणं विप्पसायए ।
सं० समतां तत्र उपेक्ष्य आत्मानं विप्रसादयेत् ।
पुरुष जीवन में समता का आचरण कर अपने चित्त को प्रसन्न करे ।
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निर्विचारता वा समता । यत्र रागात्मको द्वेषात्मको वा विचारो न भवति तत्र समता जायते । तस्यां
१. उप सामीप्येन ईक्षा उपेक्षा चूर्णो (पृष्ठ ११९) उच्च इक्खा उविक्खा इति व्याख्यातमस्ति ।
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इसलिए इन दोनों हेतुओं (सूत्र ५१-५२) की समीक्षा कर मनुष्य न स्वयं प्राणियों की हिंसा करे और न दूसरों से करवाए ।
पापकर्म का आचरण न करने के दो हेतु हैं आध्यात्मिक ज्ञान तथा पारस्परिक विचिकित्सा । विचिकित्सा का अर्थ है-- शंका, भय, लज्जा । परस्पर एक-दूसरे की आशंका के कारण कोई व्यक्ति पापकर्म का आचरण नहीं करता अथवा कोई दूसरा देख रहा है, इसलिए पापकर्म का आचरण नहीं करता क्या उस पापकर्म केन करने का कारण मुनि - जानी होना है ? काकुध्वनि से पूछे गए इस प्रश्न का उत्तर यह है--परस्पर एक दूसरे की आशंका से पापकर्म न करना उसका हेतु ज्ञानी होना नहीं है । तात्पर्य की भाषा में उसका हेतु अध्यात्मज्ञान नहीं है ।
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समता को समझकर --- हृदयंगम कर पापकर्म न करना, वहां मुनि कारण बनता है। समतापूर्वक पापकर्म से विरत होना इसका हेतु अध्यात्मज्ञान है। समता का अर्थ है-समभाव अथवा दूसरों के प्रत्यक्ष या परोक्ष में समान प्रवृत्ति करना समता है जैसा कि दश कालिक सूत्र में कहा है--दिन में या रात में, अकेले में या समूह के बीच, सोते या जागते मनुष्य को पाप कर्म से बचना चाहिए। जो व्यक्ति दूसरों के देखते हुए हिसा आदि भावों का परिहार करता है वैसे ही यह दूसरों के न देखते हुए भी हिंसा आदि का आचरण न करे। उससे उसके मन में विशेष आनन्द की अनुभूति होती है । विप्रसाद का अर्थ है-चित्त को प्रसन्नता अथवा विस की निर्मलता । जो व्यक्ति सामने कुछ और करता है और पीठ पीछे कुछ और ही करता है, उसका चित्त माया के आचरण के कारण मलिन होता है । उसमें चित्त की प्रसन्नता कहां से होगी ?
समता का एक अर्थ है-- निविचारता । जहां रागात्मक या द्वेषात्मक विचार नहीं होता वहां समता का आचरण होता है । उस
वृत्तौ (पत्र १५०) उत्प्रेक्ष्य पर्यालोच्य इति व्याख्यातम् । २.४/ सूत्र १८
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