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________________ १८४ आचारांगभाष्यम् अवस्थायामात्मप्रसाद: भूतार्थविषयः प्रज्ञालोको वा अवस्था में आत्मप्रसाद अथवा यथार्थ विषयक प्रज्ञा का आलोक प्रतिप्रतिफलिनो भवति । उत्तराध्ययनेऽपि अस्य संवादित्वं फलित होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी इसका संवादी प्रमाण दृश्यते-- मिलता है-- 'एवं ससंकप्पविकप्पणासो, संजायई समयमुवट्ठियस्स । 'इस प्रकार जो समता को प्राप्त हो जाता है, उसके संकल्प अत्ये असंकप्पयतो तओ से पहीयए कामगुणेसु तल्हा ॥' और विकल्प नष्ट हो जाते हैं। जो अर्थों-इन्द्रिय-विषयों का संकल्प नहीं करता, उसके कामगुणों में होने वाली तृष्णा प्रक्षीण हो जाती M 'स वीयरामो कयसबकिच्चो, खवेइ नाणावरणं खणेणं। तहेव जं दंसणमावरेइ जंचंतरायं पकरेह कम्मं ॥" फिर वह वीतराग सब दिशाओं में कृतकृत्य होकर क्षणभर में ज्ञानावरण को क्षीण कर देता है । उसी प्रकार जो कर्म दर्शन का आवरण करता है और जो कर्म अन्तराय (विघ्न) करता है, उस दर्शनावरण और अन्तराय कर्म को क्षीण कर देता है।' ५६. अणण्णपरमं नाणी, णो पमाए कयाइ वि । आयगुत्ते सया वोरे, जायामायाए जावए। सं०-अनन्यपरम ज्ञानी नो प्रमाद्येत् कदाचिदपि । आत्मगुप्तः सदा वीरः यात्रामात्रया यापयेत् । ज्ञानी पुरुष अनन्यपरम-आत्मोपलब्धि के प्रति क्षण भर भी प्रमाव न करे। वह सवा आत्मगुप्त और पराक्रमशील रहे और परिमित भोजन से जीवन-यात्रा चलाए । भाष्यम ५६-पूर्व 'अणण्णदंसी' तथा 'परमदंसी 'अनन्यदर्शी' (अणण्णदंसी) तथा 'परमदर्शी (परमदंसी)-ये 'अनन्यदर्शी' (अणण्णदंसी) तथा 'परमटी एते पदे प्रयुक्ते स्तः । अत्र 'अणण्णपरमं पदं प्रयुक्तमस्ति। दोनों पद पहले प्रयुक्त हो चुके हैं। यहां 'अनन्यपरम'---यह पद न विद्यते अन्यः परमः-प्रधानोऽस्मादिति अनन्यपरमः प्रयुक्त है। जिससे दूसरा परम या प्रधान नहीं है, वह अनन्यपरम -आत्मोपलब्धि: संयमः समता वा। तं प्रति ज्ञानी अर्थात् आत्मोपलब्धि, संयम या समता है। उसके प्रति ज्ञानी पुरुषः नो कदाचिदपि प्रमाद्येत् । संयमसाधनायां ज्ञानस्य पुरुष कभी भी प्रमाद न करे। संयम की साधना में ज्ञान का जैसा यथा महत्त्वं तथा वीर्यस्यापि । अत एव भणितम्-स महत्त्व है वैसा ही महत्त्व है वीर्य का, शक्ति का। इसीलिए कहा वीरः पुरुषः प्रमादस्य हेतुभूतं मनोवाक्कायं भोजनं च है-वह वीर पुरुष प्रमाद के हेतुभूत मन, वचन और काया तथा विजेतं वीर्य प्रयुञ्जीत आत्मगुप्तो भवेत् । आत्मा- आहार पर विजय प्राप्त करने के लिए शक्ति का प्रयोग करे, आत्मगुप्त शरीरं, वाग, मनश्च, तैर्गुप्तो भवेत् । गुप्तये आहारस्य बने । यहां 'आत्मा' शब्द शरीर, वाणी और मन का द्योतक है। विवेकः परं अपेक्षितः । वह इन तीनों से गुप्त हो। गुप्ति के लिए आहार का विवेक अत्यन्त अपेक्षित है। यात्रा-मात्रा–यात्रा--संयम-यात्रा, तस्या निर्वाहाय यात्रा-मात्रा--यहां यात्रा का अर्थ है--संयम-यात्रा। उसके यावती आहारमात्रा युज्यते तावत्या शरीरं यापयेत् । निर्वाह के लिए आहार की जितनी मात्रा आवश्यक हो उतनी मात्रा अतिस्निग्धेन अतिप्रमाणेन वा आहारेण नो गुप्तिर्भवति । से शरीर का यापन करे। अतिस्निग्ध और अतिमात्रा में भोजन आहारस्य अकरणेन शरीरधारणमशक्यं, तेन यथा करने से गुप्ति नहीं होती। आहार के बिना शरीर को टिकाया नहीं विषयाणामदीरणा न भवति, दीर्घकालं संयमाधारदेह- जा सकता। इसलिए वैसा भोजन करना चाहिए जिससे इन्द्रिय-विषयों प्रतिपालनं भवति तथा आहर्तव्यम् । की उदीरणा--उत्तेजना न हो और संयम के आधारभूत शरीर की दीर्घकाल पर्यन्त प्रतिपालना हो सके । १. तुलना-पातञ्जलयोगदर्शन, १।४७ : निविचारवंशारखे अध्यात्मप्रसादः। २. उत्तरायणाणि, ३२।१०७-१०८। ३. आयारो, २११७३। ४. वही, ३१३८ । ५. आचारांग चूणि, पृष्ठ १२० : इंदिएहि आयोवयार काउं भण्णइ-आतगुत्ते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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