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अ० ३. शीतोष्णीय, उ० ३. सूत्र ५६-५८
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५७. विरागं रूवेहिं गच्छेज्जा, महया खुड्डएहि वा।
सं०-विरागं रूपेषु गच्छेत् महत्सु क्षुल्लकेषु वा । पुरुष क्षुद्र या महान् -सभी प्रकार के रूपों के प्रति वैराग्य धारण करे।
भाष्यम् ५७-गुप्तिः-कायवाङ्मनसां सम्यक् मानसिक, वाचिक और कायिक सम्यक् प्रवृत्ति का भी निरोध प्रवृत्तेरपि निरोधः । तस्या उपायोस्ति वैराग्यम् । अत करना गुप्ति है । उसका उपाय है--वैराग्य । इसीलिए कहा हैएव निर्दिष्टं-रूपेषु विरागं गच्छेत् । रूपम्-पदार्थः। पुरुष रूपों के प्रति विरक्त हो। रूप का अर्थ है--पदार्थ । सर्वेपि पदार्था रूपरसाद्यात्मका भवन्ति । तत्र रूपं अतीव सभी पदार्थ रूप-रस आदि से युक्त होते हैं। पदार्थ के सभी आक्षिपति, तस्मात् तद्ग्रहणम् । ते महान्तः क्षुद्रका वा गुणों में रूप सबसे अधिक आकृष्ट करता है, इसलिए मुख्य रूप से भवेयुः । नागार्जुनीयानां व्याख्यानमेवम्
उसका ग्रहण किया गया है। पदार्थ क्षुद्र या महान् होते हैं। 'विसयंमि पंचगंमीवि, दुविहंमि तियं तियं ।
आचार्य नागार्जुन की परम्परा की व्याख्या यह है-- भावओ सुटु जाणिता, से न लिप्पइ दोसुवि ॥"
इन्द्रियाणां शब्दादयः पञ्च विषयाः। ते द्विविधाः इन्द्रियों के शब्द आदि पांच विषय हैं । वे दो प्रकार के हैं-इष्टा अनिष्टाश्च । ते च त्रिविधाः हीनमध्यमोत्कृष्ट- इष्ट और अनिष्ट । ये दोनों तीन-तीन प्रकार के हैं-हीन, मध्यम भेदात् । तान् प्रति अलिप्तो भवेत् ।
और उत्कृष्ट । साधक उनके प्रति अलिप्त रहे । विरजनम्-विरागः वैराग्यं वा। विषयदोष- विरजन का अर्थ है -विराग या वैराग्य । विषयों में दोष देखने दर्शनाभ्यासेन वितृष्णं चित्तम्-निर्वेदः । तेन (निर्वेदेन) के अभ्यास से चित्त की वितृष्णा-अवस्था निर्वेद है । इस निर्वेद से होने जायमानो वशीकारः वैराग्यम्, यथा---'निव्वेएणं भंते ! वाला वशीकरण वैराग्य है। जैसे-गौतम ने भगवान् से पूछाजीवे कि जणयई' ?
___भंते ! निर्वेद से जीव क्या प्राप्त करता है ?' 'निव्वेएणं दिव्यमाणुसतेरिच्छिएसु कामभोगेसु निव्वेयं भगवान् ने कहा----'गौतम ! निर्वेद से जीव में देव, मनुष्य हव्वमागच्छइ, सम्वविसएसु विरज्जइ।"
और तिर्यञ्च संबंधी कामभोगों के प्रति शीघ्र ही ग्लानि उत्पन्न होती
है और वह सभी विषयों के प्रति विरक्त हो जाता है। ५८. आगति गति परिणाय, दोहिं वि अंतेहिं अदिस्समाणे। से ण छिज्जइ ण भिज्जइ ण डझड, ण हम्मइ कंचणं
सव्वलोए। सं०-आगति गति परिज्ञाय, द्वाभ्यामपि अन्ताभ्यां अदृश्यमानः स न छिद्यते न भिद्यते न दह्यते न हन्यते केनचिद् सर्वलोके । जो आगति और गति (संसार-भ्रमण) को जानता है वह राग और द्वेष-इन दोनों अंतों से दूर रहता है। वह समूचे लोक में न किसी के द्वारा छेदा जाता है, न भेदा जाता है, न जलाया जाता है और न मारा जाता है।
भाष्यम ५८-विरागस्य आलम्बनमस्ति आगतेगतेश्च विराग का आलंबन है-आगति और गति का ज्ञान। जो परिज्ञानम् । य एतां द्वयीं परिजानाति स द्वाभ्यामपि आगति और गति----इन दोनों को जानता है, वह दोनों अंतों---राग अन्ताभ्याम-रागद्वेषाभ्यां अदृश्यमानो भवति । स च और द्वेष से भी दूर रहता है। वह रक्त है या द्विष्ट है-ऐसा परिरक्त इति द्विष्ट इति वा न परिलक्ष्यते । तादृशः पुरुषः लक्षित नहीं होता। वैसा पुरुष सारे लोक में किसी के द्वारा न छेदा सर्वलोके केनचित् न छिद्यते, न भिद्यते, न दह्यते, न जाता है, न भेदा जाता है, न जलाया जाता है और न मारा जाता है। हन्यते । ऐहिकदष्ट्या शरीरावस्थायां शस्त्रादिना न लौकिकदृष्टि से शरीरावस्था में बह शस्त्र आदि से नहीं छेदा जाता छिद्यते । लोकोत्तरदष्ट्या शरीरमुक्तावस्थायां स अच्छेद्यः, और लोकोत्तरदृष्टि से शरीरमुक्त अवस्था में अर्थात् सिद्ध अवस्था में अभेद्यः, अदाह्यः, अवध्यश्च भवति ।
वह अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्म और अवध्य होता है। १. आचारांग वृत्ति, पत्र १५० ।
४. आचारांग वृत्ति, पत्र १५१ : 'कंचणे' मिति विभक्ति२. उत्तरज्मयणाणि, २९:४६ : वीयरागयाए णं भंते ! जीवे कि
परिणामात् केनचित् । जणयह ? वीयरागयाए गं नेहाणुबंधणाणि तण्हाणबंधणाणि ५. तुलना-भगवद्गीता, २१२४ : य वोच्छिदइ मणु-नेसु सद्दफरिसरसरूवगंधेसु चेव विरज्जइ ।
अच्छेद्योऽयमबाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च । ३. वही, २९।३।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥
वह अमर
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