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आचारांगभाष्यम् ५०. गंथं परिणाय इहज्जेव वीरे, सोयं परिणाय चरेज्ज दंते। उम्मग्ग लधु इह माणवेहिं, जो पाणिणं पाणे
समारभेज्जासि । -त्ति बेमि । सं०-ग्रन्थं परिज्ञाय इहाद्यैव वीरः, स्रोतः परिज्ञाय चरेद् दान्तः । उन्मज्जनं लब्ध्वा इह मानवेषु, नो प्राणिनः प्राणान् समारभेत ।
..इति ब्रवीमि । इन्द्रियजयो और वीर पुरुष परिग्रह को जानकर, राग-द्वेष को तत्काल छोड़ कर विचरण करे। मनुष्य इस जन्म में ही उन्मज्जन को प्राप्त हो सकता है। उसे प्राप्त कर वह प्राणियों के प्राणों का समारम्भ न करे। --ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम ५०-यस्य इन्द्रियाणि मनश्च उपशान्तानि जिसकी इन्द्रियां और मन उपशांत हैं वह दान्त और वीर स दान्तो वीरः इह अद्यैव-अचिरात् परिग्रहं तत्कारण- पुरुष परिग्रह और उसके कारणभूत राग-द्वेष को भली प्रकार से भूतौ रागद्वेषौ च परिज्ञाय चरेत् ।
जानकर तथा तत्काल छोड़कर विहरण करे। - रागद्वेषात्मक स्रोत:, तद्धतुकः परिग्रहः, तद्धेतुका राग और द्वेष---ये दो स्रोत हैं । उनके लिए परिग्रह होता है च हिंसा । एतत् सर्वं निमज्जनम् । एतत् सर्वेषु प्राणिषु और परिग्रह के लिए हिसा होती है । यह सारा निमज्जन-डूबना है । दृश्यते, किन्तु उन्मज्जनं केवलं मनुष्येष्वेव । एतद् सभी प्राणियों में यह निमज्जन है, केवल मनुष्य में ही उन्मज्जन है। उन्मज्जनं-स्रोतोनिरोध अपरिग्रहं च लब्ध्वा दान्तः उन्मज्जन है--स्रोतों का निरोध और अपरिग्रह। इस उन्मज्जन को पुरुषः नो प्राणिनां प्राणान् समारभेत ।
प्राप्त कर दान्त पुरुष प्राणियों के प्राणों का हनन न करे । ज्ञानदर्शनचारित्राणि मोक्षसाधनानि, तत्र ज्ञान- ज्ञान, दर्शन और चारित्र----ये मोक्ष के साधन हैं। ज्ञान और दर्शने अमनुष्येष्वपि भवतः, किन्तु चारित्रं केवलं दर्शन अमनुष्य अर्थात नरक, तिर्यञ्च और देव में भी होते हैं, किन्तु मनुष्येष्वेव । अतः उन्मज्जनं चारित्रमित्यपि परि- चारित्र केवल मनुष्यों में ही होता है। इसलिए उन्मज्जन का अर्थ भाषितुं शक्यम् । ज्ञानदर्शने अपि चारित्रयोगं प्राप्य चारित्र भी किया जा सकता है। चारित्र का योग पाकर जान-दर्शन पूर्णसार्थकतां गच्छतः ।
भी पूर्ण सार्थक बन जाते हैं ।
तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक
५१. संधि लोगस्स जाणित्ता।
सं०-संधि लोकस्य ज्ञात्वा । सभी प्राणी जीना चाहते हैं, इस संधि को जानकर प्रमाद न करे।
भाष्यम् ५१-अत्र सन्धिपदं अभिप्रायवाचकमस्ति । प्रस्तुत सूत्र में संधि' शब्द अभिप्रायवाचक है। सभी प्राणी 'सर्वे जीवा जीवितुमिच्छन्ति न तु मर्तुम्' इति जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता-यह सभी प्राणियों का लोकस्य-भूतग्रामस्य समान : सन्धिर्वर्तते । एवं ज्ञात्वा समान अभिप्राय है। यह जानकर प्रमाद नहीं करना चाहिए । यह न प्रमादः आसेवनीयः । एष हिंसाविरतेः प्रथमो हेतुः। हिंसा-विरति का पहला हेतु है। ५२. आयओ बहिया पास ।
सं०-आत्मनः बहिः पश्य । तू बाह्य-स्वयं से भिन्न प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देख ।
भाष्यम् ५२-त्वं बाह्य-स्वतो भिन्नं भूतग्रामं तू बाह्य अर्थात् स्वयं से भिन्न प्राणियों को आत्मतुल्य आत्मवत् पश्य । यथा आत्मनः अप्रियं दुःखं तथा सर्व- (अपने समान) देख । जैसे स्वयं को दुःख अप्रिय है वैसे ही सभी स्यापि भूतग्रामस्य इति हिंसाविरतेद्वितीयो हेतुः । प्राणियों को दुःख अप्रिय है, यह हिसा-विरति का दूसरा हेतु है।
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