SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८१ अ० ३. शीतोष्णोय, उ० २. सूत्र ४५-४६ ४८. अणोमदंसी णिसन्ने पावेहि कम्महि । सं० अनवमदर्शी निषण्णः पापेषु कर्मसु । आत्मा को देखने वाला पुरुष पापकर्म का आदर नहीं करता। भाष्यम् ४८-अवमं हीनम् । अनवमं-उत्तमम् । यः भवम का अर्थ है-हीन और अनवम का अर्थ है-उत्तम । अवमान विषयान् विहाय अनवमं आत्मानं पश्यति जो साधक अवम विषयों को छोड़ कर अनवम आत्मा को देखता है, स पापेषु कर्मसु निषण्ण:-कृतानादरः अनुन्नतो वा वह पापकारी प्रवृत्तियों का आदर नहीं करता अथवा उनके भवति। प्रति उत्सुक नहीं होता। चूर्णी 'अणोमवंसी उत्तमसम्मविट्ठी' इति व्याख्या- चूर्णि में अनवमदर्शी का अर्थ उत्तम सम्यग्दृष्टि किया है। तमस्ति । तेनेति ज्ञायते उत्तमसम्यग्दष्टिः पुरुषः पापेषु उससे यह ज्ञात होता है कि उत्तम सम्यग्दृष्टि पुरुष पापकर्मों में कर्मसु न प्रवर्तते। प्रवृत्त नहीं होता। ४६. कोहाइमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे णिरयं महंतं । तम्हा हि वीरे विरते वहाओ, छिदेज्ज सोयं लभूयगामी। सं०- क्रोधातिमानं हन्यात् च वीरः, लोभं पश्य निरयं महान्तम् । तस्मात् हि वीरः विरतः वधात्, छिन्द्यात् स्रोतो लघुभूतकामी। बीर पुरुष क्रोध और अतिमान को नष्ट करे। लोभ को महान् नरक के रूप में देखे। इसलिए लघुभूतकामी वीर पुरुष वध से विरत होकर स्रोत को छिन्न कर डाले। भाष्यम् ४९-पापानि कर्माणि क्रोधादयः। तेन क्रोध आदि पापकर्म हैं । इसलिए निर्देश दिया गया है कि वीर निदिश्यते-वीरः पुरुषः क्रोधं अतिमान' च हन्यात्, पुरुष क्रोध और अतिमान को नष्ट करे । लोभ को महान् नरक के लोभं महान्तं नरकं पश्येत् । चुणिकारेण प्रत्यपादि- रूप में देखे । चूर्णिकार कहते हैं-लोभ से प्रायः महान् नरक की 'पायसो लोमेण महंतो गरगो णिव्वत्तिज्जति, जेण उरगा पंचमि प्राप्ति होती है। लोभ के कारण उरग पांचवीं नरक में जाते हैं जंति लोभुक्कडता य मच्छा मणुगा य सत्तम । और लोभाकुल मत्स्य और मनुष्य सातवीं नरक में जाते हैं । ___ तस्माद् लघुभूतकामी वीरः लोभहेतुकाद् वधाद् इसलिए लघुभूतकामी वीर पुरुष लोभ के कारण होने विरतो भवेत्, स्रोत:-रागद्वेषौ च छिन्द्यात् । आत्मानं वाले वध से विरत हो और स्रोत-राग-द्वेष का छेदन करे । जो लघभूतं कामयते इति लघुभूतकामी । लघुभूतः-संयमः, स्वयं को लघुभूत (हल्का) करने की कामना करता है, वह तं कामयते इति लघुभूतकामी। लघुभूतगामी वा, लघभूतकामी कहलाता है । लघुभूत का एक अर्थ है--संयम । जो लघुभूतो-वायुः तद्वद् गमनशीलः लघुभूतगामी-- संयम की कामना करता है, वह लघुभूतकामी कहलाता है। लघुभूतअप्रतिबद्धविहारी इति यावत् । गामी मानकर भी इसकी व्याख्या की जा सकती है। लघुभूत का अर्थ है--वायु । जो वायु की भांति गमनशील होता है, वह है लघुभूतगामी अर्थात् अप्रतिबद्धविहारी। १. चूर्णी वृत्तौ च 'क्रोधादिमानम्' इति व्याख्यातमस्ति(क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ११७ : कोहपुव्वगो य माणो तेण कोहादि, कहं ? जातिमंतो हीणजाती भणितो पुव्वं ता कुमति, पच्छा मज्जति, मम एसो जाति कुलं वा णिदति अतो कोहादि। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १४८; 'क्रोध: आविर्येषां ते क्रोधावयः।' अत्र आदिपवस्य अर्यों नावगम्यते, तेन बइमाण इति पदमस्माभिः व्याख्यातम् । सूत्रकृतांगेपि अस्य प्रयोगो दृश्यते-'अतिमाणं च मायं च ।' [सूयगडो १११३३४] २. अत्र मूलपाठे द्वितीयास्थाने षष्ठी अस्ति। ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ ११७ : इह तु ठिती विवक्खिया, वेयणा वा, अप्पइट्ठाणो खित्ततो सव्वखुड्डो ठितिवेयणाहि महंतो। ४. वही, पृष्ठ ११७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy