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आचारांगभाष्यम चक्रवर्ती सन्नपि समुत्थितः, अर्जुनमाली च वधप्रवृत्तोपि महाराज भरत चक्रवर्ती होने पर भी संयम की साधना के लिए तत्पर हो समूत्थितः । यदि परिग्रहः हिंसा च समाधानं भवेत् तदा गए और लोगों के वध में प्रवृत्त अर्जुनमाली भी संयम-साधना के लिए किमर्थं भरतादयः समुत्थिता अभवन् ? एतेन ज्ञायते यद् उद्यत हो गया। यदि परिग्रह और हिंसा जीवन का समाधान होता तो आसेव्यमाना विषया न तृप्ति जनयन्ति परिग्रहोपि च। भरत आदि संयमी क्यों बनते ? इससे जाना जाता है कि भोगे जाने हिंसापि न मनसः शान्ति निष्पादयति । तस्माद् विषयान् वाले विषय तथा परिग्रह व्यक्ति को तृप्त नहीं करते । हिंसा भी परिग्रहं हिंसां च परित्यज्य द्वि सेवेत ।
मानसिक शांति नहीं देती, इसलिए विषय, परिग्रह और हिंसा का परित्याग कर उनका पुनः आसेवन नहीं करना चाहिए ।
४५. णिस्सारं पासिय णाणी, उववायं चवणं णच्चा । अणण्णं चर माहणे !
सं० निस्सारं दृष्ट्वा ज्ञानी, उपपातं च्यवनं ज्ञात्वा, अनन्यं चर माहन ! ज्ञानी ! तू देख ! विषय निस्सार हैं। तू जान ! जन्म और मृत्यु निश्चित है। अतः हे माहन ! तू अनन्य-आत्मा में रमण कर।
भाष्यम् ४५–अनन्यं यश्चरति स एव विषयादीनां जो पुरुष अनन्य में रमण करता है, वही विषय आदि के सेवनं त्यक्तुमर्हति । अनन्यं-चैतन्यम् । एतत् शाश्वतं आसेवन को छोड़ सकता है । अनन्य का अर्थ है-चैतन्य । वह शाश्वत सदाहितकरत्वात् सारभूतं च । नान्यः कोपि पदार्थ ईदशो है, सदा हितकारी होने के कारण सारभूत है। दूसरा कोई भी पदार्थ भवति । सर्वेपि विषया अनित्यत्वान्निस्साराः। सर्वोपि ऐसा नहीं होता। सभी विषय अनित्य होने के कारण निस्सार हैं। लोको जन्ममरणचक्रपरिघट्टितः । सूत्रकार उपदिशति- सारा संसार जन्म और मृत्यु के चक्र में पिसा जा रहा है। सूत्रकार हे माहन ! त्वं अनन्यं चर। अनन्यचरणस्य द्वौ हेतु- कहते हैं- हे माहन ! तू अनन्य-आत्मा में रमण कर । आत्मा में विषयाणां निस्सारतादर्शनं जन्ममरणपरम्परायाश्च रमण करने के दो हेतु हैं विषयों की निस्सारता का दर्शन (अनुभव) ज्ञानम् । स एव ज्ञानी यो द्वयमिदं यथार्थ वेत्ति । __ और जन्म-मरण की परम्परा का ज्ञान । ज्ञानी वही होता है जो
दोनों हेतुओं को यथार्थरूप में जानता है। ४६. से ण छणे ण छणावए,'छणंतं णाणुजाणइ।
सं०-स न क्षणोति न क्षाणयति क्षण्वन्तं नानुजानाति । वह अहिंसक मनुष्य जीवों की हिंसा न करता है, न कराता है और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन करता है।
भाष्यम् ४६-अनन्यचरणस्य प्रथमं लक्षणमस्ति आत्मरमण का पहला लक्षण है-अहिंसा। वह माहनअहिंसा । स माहनः अनन्यं चरन न कमपि प्राणिनं हन्ति अहिंसक व्यक्ति आत्मा में रमण करता हुआ किसी भी प्राणी की न न घातययि न च घ्नन्तमप्यनुजानाति ।
स्वयं हिंसा करता है, न दूसरों से कराता है और न हिंसा करने वाले
का अनुमोदन करता है। ४७. णिव्विद दि अरते पयासु ।
सं०--निविन्दस्व नन्दी अरतः प्रजासु । तू कामभोग के आनन्द से उदासीन बन । स्त्रियों में अनुरक्त मत बन ।
भाष्यम् ४७-अनन्यं चरतो द्वितीयं लक्षणमस्ति आत्मरमण का दूसरा लक्षण है-ब्रह्मचर्य । नंदी का अर्थ ब्रह्मचर्यम् । नन्दी-प्रमोदः। विषयेषु जायमानां नन्दी है-प्रमोद । विषयों में होने वाले प्रमोद के प्रति तुम विरक्ति करो प्रति निवेदं कुरु अथवा एते शब्दादयो विषयाः किम्पाक- अथवा यह निश्चित जानो कि ये शब्द आदि विषय किपाकफल के फलसमाना इति निर्विद्धि-निश्चितं जानीहि । एतद् सदृश हैं । यह जानकर स्त्रियों से विरत हो जाओ। विदित्वा प्रजासु-स्त्रीषु अरतो भव ।
१. द्रष्टव्यम्-आयारो, ३१५७ ।
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