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________________ शाचा अ० ३. शीतोष्णीय, उ०२. सूत्र ४१-४४ १७६ इच्छा कथं पूरयितुं शक्या । उक्तं चोत्तराध्ययने- अनुष्ठान में भी प्रवृत्त हो जाता है । अन्यथा इस दुष्पूर इच्छा की पूर्ति कैसे की जा सकती है ? उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है'सुवण्णरुप्पस्स उ पव्वया भवे, _ 'कदाचित् सोने और चांदी के कैलास के समान असंख्य पर्वत सिया हु केलाससमा असंखया। हो जायें, तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी नहीं होता, क्योंकि नरस्स लुबस्स न तेहिं किंचि, इच्छा आकाश के समान अनन्त है।' इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ॥" 'जहा लाहो तहा सोहो, लाहा लोहो पाई। 'जैसे लाभ होता है वैसे ही लोभ होता है। लाभ से लोभ वोमासकयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं ॥" बढ़ता है। दो माशे सोने से पूरा होने वाला कार्य करोड़ से भी पूरा नहीं हुआ। लाभेन नेच्छा पूर्णा भवति लाभ से इच्छा पूरी नहीं होती'न शयानो जयेन्निद्रा, न मुंजानों जयेत् क्षुधाम् । 'शयन से नींद पर, भोजन से भूख पर विजय नहीं पाई जा न काममानः कामानां, लाभेनेह प्रशाम्यति ।" सकती। इसी प्रकार कामनाओं के लाभ (पूर्ति) से काम को शान्त नहीं किया जा सकता, उसको नहीं जीता जा सकता। ४३. से अण्णवहाए अण्णपरियावाए अण्णपरिग्गहाए, जणवयवहाए जणवयपरियावाए जणवयपरिग्गहाए। सं० --स अन्यवधेन अन्यपरितापेन अन्यपरिग्रहेण जनपदवधेन जनपदपरितापेन जनपदपरिग्रहेण। तृष्णाकुल मनुष्य दूसरों के वध, परिताप और परिग्रह तथा जनपद के वध, परिताप और परिग्रह के लिए प्रवृत्ति करता है। भाष्यम् ४३ –स अनेकचित्तः पुरुषः यः प्रकारैः अनेक चित्त वाला पुरुष जिन प्रकारों से धन कमाता है, बे अर्थमुपार्जयति, ते केचित् प्रदर्श्यन्ते कुछेक प्रकार यहां निर्दिष्ट हैं---- १.अन्यवध:-यथा चौरा धनिक मारयित्वा धनं १. अन्यवध-जैसे चोर धनिकों की हत्या कर धन चुराते हैं । गृह्णन्ति । २. अन्यपरितापः-शस्त्रप्रहारैः परं परितप्तं कृत्वा २. अन्यपरिताप-कुछ व्यक्ति शस्त्र के प्रहारों से दूसरों को केचिद् धनं गृह्णन्ति । परितप्त कर धन का हरण करते हैं। ३. अन्यपरिग्रहः-शक्तिप्रयोगपूर्वकं दासदासीभृत्याs- ३. अन्यपरिग्रह--अपनी शक्ति का उपयोग कर दास, दासी, भृत्य, बलादीनां परिग्रहः, तेषां परतन्त्रतापादनम् । स्त्रियों आदि को अपने अधीन करते हैं। ४. जनपदवधः । यथा केचिद् राजानो लोभा- ४. जनपदवध-- जैसे कई राजा लोभ के वशीभूत होकर ५. जनपदपरितापः भिभूता: जनपदस्य वधाय परि- ५. जनपदपरिताप- जनपद में निवास करने वाले व्यक्तियों का तापाय च प्रवर्तन्ते । वध करने या परिताप देने में प्रवृत्त होते हैं। ६. जनपदपरिग्रहः केचिन्ममैतद् राज्यं राष्ट्र वा ६. जनपदपरिग्रह---कई राजा यह राज्य या राष्ट्र मेरा है, ऐसा इति ममत्वं कुर्वन्ति तथा परराज्यमपि विक्रमेण ममत्व रखते हैं और दूसरे राज्यों को भी अपने पराक्रम से जीत परिगृह्णन्ति । लेते हैं। ४४. आसेवित्ता एतमट्ठ इच्चेवेगे समुट्ठिया, तम्हा तं बिइयं नो सेवए। सं०-आसेव्य एतमर्थ इत्येवैके समुत्थिताः, तस्मात् तं द्वितीयं नो सेवते । कुछ व्यक्ति परिग्रह, वध आवि का आसेवन कर अंत में संयम-साधना में लग जाते हैं। इसलिए वे फिर उस काम-भोग एवं हिंसा आदि का आसेवन नहीं करते। भाष्यम् ४४-एतमर्थं परिग्रहं तदर्थं जायमानां कुछ व्यक्ति परिग्रह और उसके लिए होने वाली हिंसा का हिंसामासेव्यापि एके समुत्थिता भवन्ति, यथा भरतः आसेवन करके भी संयम की साधना के लिए तत्पर हो जाते हैं । जैसे १. उत्तरायणाणि, ९।४८ । ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ ११५ । २. वही, ८।१७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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