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________________ १७८ आचारांगमाष्यम् 'जणवय सम्मय ठवणा, णामे सवे पडुच्चसच्चे य। जनपद सत्य, सम्मत सत्य, स्थापना सत्य, नाम सत्य, रूप सत्य, ववहार भाव जोगे, दसमे ओवम्मसच्चे य॥' प्रतीत्य सत्य, व्यवहार सत्य, भाव सत्य, योग सत्य तथा औपम्य सत्य । प्रतिज्ञा इति आचारांगचूर्णी--जहापरिणं अणुपालं- __आचारांग चूणि में सत्य का अर्थ है-प्रतिज्ञा। प्रतिज्ञा के तेण सच्च।' अनुसार (व्रतों का) पालन करना सत्य है। अस्मिन प्रकरणे सत्यशब्दस्य प्रयोगः सार्वभौमनियमे प्रस्तुत प्रकरण में 'सत्य' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में हुआ संयमे च वर्तते, यथा-- है-सार्वभौम नियम तथा संयम । जैसे१. अस्ति कर्म। १. कर्म है। २. कृतं कर्म भोक्तव्यम् । २. किए हुए कर्मों को भोगना पड़ता है। ३. उदीरणाकरणेन कर्मणो भोगे परिवर्तनमपि ३. उदीरणा के द्वारा कर्मों के भोग में परिवर्तन भी जायते। होता है। ४. उदीरणादिकरणानां साधनमस्ति संयमः। ४. उदीरणा आदि 'करणों' का साधन है-संयम । कर्मणः क्षयार्थं धतिरपि नितान्तमपेक्षितास्ति । यस्य कर्मों के क्षय के लिए धृति भी नितांत अपेक्षित होती है। सत्ये धतिर्भवति स एव पूर्वाजितं कर्म क्षीणतां नेतुं जिस साधक की सत्य में धृति होती है, वही पूर्वाजित कर्मों को क्षीण शक्नोति । करने में समर्थ होता है। द्रष्टव्यं सूत्रद्वयम्-३।६५,६६ । देखें दोनों सूत्र-३।६५ तथा ६६ । ४१. एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावकम्मं झोसेति । सं०-- अत्रोपरतः मेधावी सर्व पापकर्म क्षपयति । संयत अथवा विरत मेधावी सब पापकर्म को क्षीण कर डालता है। भाष्यम ४१--अत्रय उपरत:-संयतो विरतो' वा यहां जो उपरत–संयत या विरत होता है वह सभी पापभवति स सर्वं पापकर्म क्षपयति । पापकर्मक्षपणस्य कर्मों को क्षीण कर डालता है। पापकर्म को क्षीण करने का उपाय उपायोस्ति संयमः। अस्मिन् सूत्रे स एव मुख्यत्वेन है संयम । प्रस्तुत सूत्र में उसी का मुख्यरूप में प्रतिपादन है। प्रदर्शितः। यः संयमे उपरतः-सामीप्येन रतो भवति', स सर्व जो संयम में उपरत होता है, संलग्न होता है, वह सभी पापकर्म क्षपयति । अयं वैकल्पिकोर्थोऽपि सम्मतः । पापकर्मों को क्षीण कर डालता है। यह वैकल्पिक अर्थ भी सम्मत है। ४२. अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पूरइत्तए। सं०--अनेकचित्तः खलु अयं पुरुषः स केतनं अर्हति पूरयितुम् । यह पुरुष अनेक चित्त वाला है । वह चलनी को भरना चाहता है। भाष्यम् ४२-अयं प्रमत्तः पुरुषः लोभाभिभूतः सन् यह प्रमत्त पुरुष लोभ से अभिभूत होकर अनेकचित्त वाला हो अनेकचित्तो भवति । नानाविधेषु अर्थोपार्जनहेतुभूतेषु जाता है। उसका चित्त धनोपार्जन के हेतुभूत विभिन्न व्यवसायों में व्यवसायेषु तस्य चित्तं प्रवर्तते। स केतनं पूरयितुं प्रवर्तित रहता है । वह केतन-चलनी को (पानी से) भरना चाहता अर्हति-इच्छति। द्रव्यकेतनम-चालनी, भावकेतनम्-इच्छा । अस्य द्रव्य केतन है-चलना आर भाव कत तात्पर्यम्- लोभेच्छा व्याकुलमतिः पुरुषः शक्याशक्य- इसका तात्पर्य है-लोभ की इच्छा से आकुल-व्याकुल पुरुष विचाराक्षमः अशक्यानुष्ठानेऽपि प्रवर्तते । अन्यथा दुष्पूरा शक्य और अशक्य का चिंतन नहीं कर सकता और वह अशक्य १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ११४।। २. वही, पृष्ठ ११५: उवरतो णिवित्तो। ३. आचारांग वृत्ति, पत्र १४७ : अत्र अस्मिन् संयमे भगवद्वचसि वा उप-सामीप्येन रतः-व्यवस्थितः। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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