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अ० ३. शीतोष्णीय, उ० २. सूत्र ३६-४०
३६. बहुं च खलु पावकम्मं पगडं ।
सं०-बहु च खलु पापकर्म प्रकृतम् । इस जीव ने अतीत में बहुत पापकर्म किए हैं।
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भाष्यम् ३९ ---' कालकंखी परिब्वए' ( सूत्र ३।३८ ) - अस्य तात्पर्यमस्ति यावज्जीवं शीतं उष्णं सहमान: परिव्रजेत् । किमर्थमेतावन्तं दीर्घं काळं परिव्रजेत् इत्याशङ्कायां सूत्रकारो निर्दिशति - अतीते काले बहु पापकर्म प्रकृतमस्ति । तद् नाल्पेन कालेन क्षीणतां नेतुं शक्यम् । तत्क्षवार्थ दीर्घकाल अपेक्षितोऽस्ति ।
४०. सति प्रिति कुव्वह ।
[सं० सत्ये धूति कुरु ।
तू सत्य में घृति कर ।
भाष्यम् ४० --- सत्यं इति सत्, सद्भावः तत्त्वं तथ्यं, सार्वभौमनियमः, भूतोद्भावनं, संयमः, काय भावभाषाणां ऋजुता, अविसंवादनयोग:, यथार्थवचनं अगर्हितवचनं, व्यवहाराश्रितवाक्यं प्रतिज्ञा वा ।
सत्-उत्पादव्ययधीव्ययुक्तं सत्' ।' अन 'सत्' इति पदं अस्तित्वात्मकं सत्यं संबध्नाति ।
सद्भावः – निश्चयनय: - 'तहियाणं तु भावाणं, सम्भावे उवएसणं ।"
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तत्त्वम् - द्रव्यस्य यथार्थं स्वरूपम् - चेतनतत्वमेव सत्यं, अचेतनतत्त्वं मिथ्या अथवा अचेतनतत्वमेव सत्यं चेतनतत्वं मिथ्या इति नास्ति सम्मतम् । चेतनतत्त्वमपि सत्यं, अचेतनतत्त्वमपि सत्यं इत्यभिमतम् ।
प्रतिपादनम्,
भूतोद्भावनम् - यथार्थस्य अस्ति आत्मा परलोकश्च ।
जहा
१. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्, ५।२९ ।
२. उत्तरज्झयणाणि, २८ १५ ।
३. आचारांग वृत्ति, पत्र १४७ ।
संयमः सत्यः संयमः इति आचारांगवृत्तौ ।' 'काय भाव-भावाचा अविसंवादनयोगः' इति स्थानांगे उब्विहे सच्चे पण्णत्ते तं जहा काउज्जु यया, भासुज्जुयया, भावज्जुयया, अविसंवायणाजोगे । व्यवहाराश्रितवाक्यम् - दसविहे सच्चे पण्णत्ते, तं
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यथा
'कालकंखी परिव्वए इसका तात्पर्य है कि साधक जीवनपर्यन्त गीत और उष्ण-अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों को सहन कर परिव्रजन करे प्रश्न होता है कि इतने दीर्घकाल तक (शीत और उष्ण को) सहन करते हुए क्यों परिव्रजन किया जाए ? इसके समाधान में सूत्रकार कहते हैं—अतीत में बहुत सारे पापकर्म किए हैं। उनका क्षय अल्प समय में नहीं किया जा सकता । उनको क्षीण करने के लिए दीर्घकाल की अपेक्षा होती है।
'सत्य' पद के ये अर्थ हैं - ( १ ) सत्, (२) सद्भाव, (३) तत्त्व, (४) तथ्य, (५) सार्वभौमनियम, (६) भूतोद्भावन, (७) संयम, (८) काय, भाव और भाषा की ऋजुता तथा अविसंवादनयोग, (९) यथार्थवचन (१०) अतिवचन (११) व्यवहाराधित वचन और (१२) प्रतिज्ञा ।
सत्-जो उत्पाद, व्यय और धौव्ययुक्त होता है वह सत् है । यहां 'सत्' शब्द अस्तित्वात्मक सत्य का वाचक है ।
सद्भाव निश्चय दृष्टि का वाचक ।
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तत्व - द्रव्य का यथार्थ स्वरूप । चेतनतत्त्व ही सत्य है और अचेतनतत्त्व मिथ्या है अथवा अचेतनतत्त्व ही सत्य है और चेतनतत्त्व मिथ्या है यह सम्मत नहीं है। चेतनतत्त्व भी सत्य है और अचेतनतस्य भी सत्य है - ऐसा अभिमत है ।
भूतोद्भावन - यथार्थ का प्रतिपादन, जैसे आत्मा है, परलोक
है ।
संयम -- आचारांग की वृत्ति में सत्य का अर्थ है - संयम ।
स्थानांग के अनुसार सत्य के चार प्रकार हैं- काया की ऋजुता, भाव की ऋजुता, भाषा की ऋजुता तथा योगों
अविसंवादिता ।
व्यवहाराधितवचन -- सत्य के दस प्रकार हैं, जैसे
४. अंगा १, ठाणं ४।१०२ । ५. वही, ठाणं १०१८९ ।
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