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________________ भ०२. लोकविचय, उ०१. सूत्र ६-११ सं०-नालं ते तव त्राणाय वा, शरणाय वा । त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा, शरणाय वा । हे पुरुष ! वे स्वजन तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं । तुम भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो। भाष्यम् -केचिज्जना वृद्धमपि पुरुषं न परिवदन्ति, कुछ लोग बूढे व्यक्ति का भी तिरस्कार नहीं करते, फिर भी वे तथापि ते जरारोगादिकष्टेभ्यो मृत्योर्वा तं संरक्षितुं बुढापा, रोग आदि कष्टों से या मृत्यु से उसकी रक्षा करने में असमर्थ न क्षमन्ते इत्यालम्बनं प्रस्तुते' सूत्रकार:-'नालं ते तव होते हैं। सूत्रकार इस आलम्बन को प्रस्तुत कर रहे हैं-वे स्वजन त्राणाय वा शरणाय वा । त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तुम भी उन्हें त्राण या शरणाय वा।' शरण देने में समर्थ नहीं हो। ६. से ण हस्साए, ण किड्डाए, ण रतीए, ण विभूसाए । सं०-स न हास्याय, न क्रीडाय, न रत्यै, न विभूषायै । वह वृद्ध मनुष्य न हास्य-विनोद के योग्य, न क्रीड़ा के योग्य, न रति-सेवन के योग्य और न शृंगार के योग्य रहता है। भाष्यम् ९-वार्द्धक्यदशाया अनुचिन्तनमपि ममत्व- बुढापे की स्थिति का अनुचितन भी ममत्व-विच्छेद का आलंबन विच्छेदस्य आलम्बनं भवति- वृद्धः पुरुषः न हसितुं बनता है-वृद्ध पुरुष न हंस सकता है, न कूदफांद, तैराकी और दौड़ शक्नोति, न लवनप्लवनधावना दिक्रीडां कर्तुं आदि क्रीडाएं कर सकता है, न वह विषय का आस्वाद लेने के योग्य शक्नोति, न विषयरतेरपि योग्यो भवति, न च विभूषा- रहता है और न ही उसके लिए विभूषा करना उचित होता है । करणमपि तस्य उचितं भवति । १०. इच्चेवं समुट्ठिए अहोविहाराए । सं०-इत्येवं समुत्थितः महोविहाराय । इस प्रकार वृद्धावस्था में होने वाली दशा को जानकर पुरुष अहोविहार-संयम के लिए समुद्यत होता है। भाष्यम् १०-साधारणमनुष्यस्य सहजाया मनोवृत्तेः इस अध्ययन के प्रथम तीन सूत्रों में जनसाधारण की सहज निरूपणं आद्यसूत्रत्रये कृतम् । तदनन्तरं निरूपितानि मनोवृत्ति का निरूपण किया गया है। उसके बाद विचय-सूत्र निरूपित विचयसूत्राणि । तेषामालम्बनेन संजाते मनोवृत्तेः परि- हुए हैं । उनके आलम्बन से मनोवृत्ति का परिवर्तन होने पर कोई पुरुष वर्तने कश्चित् पुरुषः अहोविहाराय समुत्थितो भवति । अहोविहार के लिए समुद्यत होता है। अहोविहारः-विहारः यात्रा। विषयपरिग्रहादि- अहोविहार-विहार का अर्थ है-यात्रा। विषय, परिग्रह बन्धनबद्धानां जीवनयात्रा सर्वप्रतीतास्ति, किन्तु विषय- आदि के बंधनों से बंधे हुए प्राणियों की जीवन-यात्रा सर्व प्रतीत है । परिग्रहादेः बन्धनं छित्त्वा ये जीवनयात्रायां प्रस्थिता किंतु जो व्यक्ति विषय, परिग्रह आदि के बंधन को तोड़कर जीवनभवन्ति तेषां विहारः साधारणजनानामाश्चर्यकारी। यात्रा में प्रस्थान करते हैं, उनकी यात्रा साधारण लोगों के लिए अत एव संयम: 'अहोविहारः' इतिपदेन सम्बोधितः । आश्चर्यकारी होती है। इसीलिए संयम को 'अहोविहार' पद से संबोधित किया गया है। ११. अंतरं च खलु इमं संपेहाए-धीरे मुहुत्तमवि णो पमायए। सं०-अन्तरं च खलु इदं संप्रेक्ष्य-धीरः मुहूर्तमपि नो प्रमाद्येत् । इस अन्तरात्मा की संप्रेक्षा कर धीर पुरुष मुहूर्तभर भी प्रमाद न करे । भाष्यम् ११-अन्तरमिति अन्तरात्मा । इमं अन्तरा- अन्तर का अर्थ है-अन्तरात्मा। इस अन्तरात्मा की संप्रेक्षा १. क्रियापदमिदम् । किन्तु अत्र अन्तर्शब्दस्य 'अन्तरात्मा' इत्यर्थः अधिक २. चूणों (पृष्ठ ५४) 'अन्तर' शब्दस्य द्वावयौं दृश्यते-- प्रसजति। आप्टे कृत 'संस्कृत-इंग्लिस-शब्दकोशे' अन्तर१. विरहः, २. छिनम् । शब्दस्य एतद्विषयका अनेकेऽर्था उपलभ्यन्तेवृत्तौ (पत्र ९७) अस्यार्थः कृतोऽस्ति-अवसरः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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