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________________ ६४ - त्मानं सम्प्रेक्ष्य धीरः मुहूर्तमपि न प्रमाद्येत् — गुणे मूलस्थाने च न प्रवर्तेत अन्तरात्मनः संप्रेक्षा मनुष्यजीवने एव इति चिन्तनं अप्रमादस्यालम्बनं भवति । १२. वयो अच्छे जोवणं व सं० वयः अत्येति यौवनं वा । अवस्था और यौवन बीत रहे हैं। भाष्यम् १२ - वयो यौवनञ्च अत्येति-मृत्युं जरां चाभिधावति । प्राणी प्रतिक्षणं अवीचिमरणेन म्रिय माणोस्ति यौवनमपि प्रतिक्षणं हीयमानं विद्यते सति आयुषि यौवने च धर्माराधना संभवति । जराजीणं शरीरं न तां कर्तुमर्हति । अप्रमादस्यालम्बनमिदम् । / । १३. जीविए इह जे पमता । सं० - जीविते इह ये प्रमत्ताः । जो इस जीवन में प्रमत्त हैं । भाष्यम् १३ इह जीविते ये प्रमत्ता भवन्ति गुणे मूलस्थाने च प्रवर्तन्ते, त एवं हिंसामाचरन्तीति संबध्नाति सूत्रमिदं अग्रिमसूत्रेण । भाष्यम् १४ -- स इति गुणे मूलस्थाने व प्रवृत्तः पुरुषः हन्ता देता भेत्ता लुम्पिता विलुम्पिता उद्घोता उत्त्रास यिता भवति । लुम्पिता -प्रहर्ता । विलुम्पिता - ग्रामादिघातकः । ' उद्योता - प्राणवधकः । १४. से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता विलुंपित्ता उद्देवित्ता उत्तासइत्ता । सं०-सहन्ता देता घेता सुचिता विधिता उहोता उरवासयिता । वह हनन, छेदन, भेदन, प्रहार, ग्रामघात, प्राणवध और उत्त्रास करने वाला होता है । आचारांगभाष्यम् कर धीर पुरुष मुहूर्त भर भी प्रमाद न करे अर्थात् गुण (विषय) और मूलस्थान ( सोध) में प्रवृत्ति न करे। 'अन्तरात्मा की संप्रेक्षा मनुष्य जीवन में ही हो सकती है, यह चिंतन अप्रमाद का थालम्बन बनता है । 'अन्तरं -- Soul, heart, mind, the inmost or secret nature, the Supreme Soul' 'सन्धि' सम्यस्यापि एष एव अर्थ: विभाव्यते (आपारो ३०५१) । अवस्था और यौवन बीत रहे हैं-मृत्यु और बुढ़ापे की तरफ दौड़ रहे हैं । प्राणी प्रतिक्षण भवीचिमरण के द्वारा मर रहा है । यौवन को भी प्रतिक्षण हानि हो रही है। आयुष्य और यौवन होने पर ही धर्म की आराधना हो सकती है। बुढ़ापे से जीर्ण-शीर्ण शरीर धर्माराधना करने में समर्थ नहीं होता। यह अप्रमाद का आलंबन-सूत्र है । Jain Education International इस जीवन में जो प्रमत्त होते हैं अर्थात् गुण और मूलस्थान में प्रवृत्ति करते हैं, वे ही हिंसा का आचरण करते हैं - इस प्रकार यह सूत्र अग्रिम सूत्र से संबद्ध होता है । गुण और मूलस्थान में प्रवृत वह पुरुष हनन, छेदन, भेदन, प्रहार, ग्रामघात, प्रागवध और उत्पास करने वाला होता है। १५. अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे । सं० - अकृतं करिष्यामीति मन्यमानः । हुए मैं वह करूंगा, जो आज तक किसी ने नहीं किया - यह मानते भाष्यम् १५ प्रस्तुतसूत्रे अर्थार्जनस्य मानसिको प्रस्तुत सूत्र में अर्थार्जन का मानसिक हेतु प्रदर्शित किया गया हेतुरुपदर्शित: - अकृतं करिष्यामीति मन्यमानः पुरुषः है। मैं वह करूंगा जो आज तक किसी ने नहीं किया - ऐसा मानकर १. आचारांग पूर्ण पृष्ठ ५४ पिता सादिहि मारणे पहारे य, लुंपणासद्दो पहारे वट्टति । विलोपो नामातिघातो । लुंपिता का अर्थ है प्रहार करने वाला । विलुंपिता का अर्थ है-ग्रामघात करने वाला । उद्घोता का अर्थ है - प्राणवध करने वाला । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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