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________________ अ० २. लोकविचय, उ० १. सूत्र १२-१९ महते अर्थार्जनाय प्रवर्तते। मनोवैज्ञानिकभाषायां एषा व्यक्ति विपुल अर्थार्जन के लिए प्रवृत्त होता है। मनोविज्ञान की भाषा अहं-सम्बद्धाभिप्रेरणा वर्तते ।' में यह 'अहं'-सम्बद्ध अभिप्रेरणा है । १६. जेहिं वा सद्धि संवसति ते वा गं एगया णियगा तं पुटिव पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसेज्जा। सं०-यैः वा सार्द्ध संवसति ते वा एकदा निजकाः तं पूर्वं पोषयन्ति, स वा तान् निजकान् पश्चात् पोषयेत् । वह जिनके साथ रहता है, वे आत्मीयजन एकदा (शैशव या अर्थाभाव में) उसके पोषण की पहल करते हैं। बाद में वह भी उनका पोषण करता है। १७. नालं ते तब ताणाए वा, सरणाए वा । तुमंपि तेसि नालं ताणाए वा, सरणाए वा । सं०-नालं ते तव त्राणाय वा, शरणाय वा । त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा, शरणाय वा। ऐसा होने पर भी हे पुरुष ! वे तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं । तुम भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो। भाष्यम् १६-१७-अशरणानुप्रेक्षाया आलम्बनभूतं सूत्र- अशरण अनुप्रेक्षा के आलंबनभूत दोनों सूत्र पूर्ववत् ७,८ की द्वयं पूर्ववद् द्रष्टव्यम् (७,८)। केवलं अयं विशेष: ... भांति द्रष्टव्य हैं । केवल इतना अन्तर है कि पूर्व अर्थात् शैशव या पूर्वमिति शैशवे विपन्नावस्थायां वा ते निजका: तं विपन्न अवस्था में वे आत्मीयजन उसका पोषण करते हैं । पश्चात् अर्थात् पोषयन्ति, पश्चादिति अर्थप्राप्तौ सत्यां स निजकान अर्थ की प्राप्ति होने पर वह आत्मीयजनों का पोषण करता है। पोषयेत् । १८. उवाइय-सेसेण वा सन्निहि-सन्निचओ कज्जइ, इहमेगेसि असंजयाणं भोयणाए। -सं०-उपादितशेषेण वा सन्निधि-सन्निचयः क्रियते, इहैकेषां असंयतानां भोजनाय । मनुष्य उपभोग के बाद बचे हुए धन से कुछ असंयत व्यक्तियों (पुत्र आदि) के भोजन के लिए सन्निधि और सन्निचय करता है। भाष्यम् १८-ममत्वग्रन्थिबद्धः पुरुषः अर्थमर्जयति, ममत्व की ग्रंथि से बंधा हुमा पुरुष अर्थ का अर्जन करता है स्वयमुपभुङ्क्ते । उपभुक्तशेषेण सन्निधि-सन्निचयं करोति और स्वयं उस अर्थ का उपभोग करता है। उपभोग के बाद बचे हुए एकेषामसंयतानां भोजनाय। अत्र असंयतशब्देन धन से कुछ असंयत व्यक्तियों के भोजन के लिए सन्निधि और सन्निचय पुत्रादयः सन्ति विवक्षिताः । करता है । यहां असंयत शब्द से पुत्र आदि विवक्षित हैं। सन्निधिः --ओदनादीनां शीघ्रविनाशिद्रव्याणां सन्निधि का अर्थ है-ओदन (पके हुए चावल) आदि शीघ्र संग्रहः । विनाशी पदार्थों का संग्रह। सन्निचयः-धान्यघृतादीनां किञ्चित्कालस्थायि- सन्निचय का अर्थ है-अनाज, घृत आदि कुछ समय तक द्रव्याणां संग्रहः । रखी जा सकने वाली वस्तुओं का संग्रह । १६. तओ से एगया रोग-समुप्पाया समुप्पज्जंति । सं०-ततः तस्य एकदा रोगसमुत्पादाः समुत्पद्यन्ते । उसके पश्चात् अर्थ-संचय होने पर भी कदाचित् मनुष्य के शरीर में रोग उत्पन्न हो जाते हैं। भाष्यम् १९-केचित्पुरुषा अर्थमुपार्जयन्ति किन्तु न कुछ पुरुष अर्थ का उपार्जन करते हैं किंतु उसका उपभोग तस्योपभोगं कर्तुं समर्था भवन्ति । तस्य कारणमस्ति करने में समर्थ नहीं होते । उसका कारण है-रोगों की उत्पत्ति । यही रोगाणां समुत्पादः। एतदेव सत्यमस्मिन् सूत्रे प्रति- सत्य इस सूत्र में प्रतिपादित है। पादितमस्ति । २. द्रष्टव्यम्-आयारो २।१०४,१०५। . 9. Self-actualization Motives (maslow, Motiva tion and Personality, Harper, New York, 1954) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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