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________________ २३६ ये मनोभूमिकायां विचरन्ति तेषां दृशि सारमस्ति पदार्थानां संग्रहो भोगश्च प्रस्तुताध्ययने यत् सारं वर्णितमस्ति तदस्ति मनोभूमिकायाः पारंगतानां अन्तर्दृशां आत्मानं अनुभूय विहरमाणानाम् । तत् सारमस्ति पढ अहिंसा, विरति अपरिग्रहः, स्वाध्यायः, गुप्तिः, उन्मार्गवर्जनम् । " अध्यात्मचिन्तायां अमृतत्वमस्ति सारम् । तत्र जन्ममरणपरम्परा सारं नास्ति । तस्याः कारणमस्ति मोहः 'मोहेण मरणाति एति" तृतीयाध्ययनेऽपि उक्तम्- 'माई पमाई पुणरे गग्मं ।" आत्मानुभूतेः सार मस्ति जन्ममरणपरम्पराया विच्छेदः ।" अस्मिन् रहस्यवादस्य प्राचुर्यं वर्तते । ध्यानसूत्राणामपि अस्ति प्राचुर्यम् ।' अस्मिन् युद्धस्यापि निर्देशः समुपलभ्यते ।' युद्ध मनुष्यस्य मौलिकी मनोवृत्तिरस्ति । तस्य हिंसात्मकस्य युद्धस्य आध्यात्मिकीकरणमस्ति पराक्रमस्य प्रतिष्ठापनम् । ब्रह्मचर्यस्य न केवलमुपदेशः किन्तु तस्य । साधनाये प्रयोगा अपि सन्ति समुपदिष्टाः तैराहार । संबंधी दृष्टिकोण सुस्पष्टो भवति, आसनानां माहात्म्यमपि हृदयंगमीभवति । तानि आसनानि न केवलं शरीरसौष्ठवाय, तेभ्यः कामादिवृत्तीनामपि परिष्कारो जायते । अस्मिन् आत्मनो लक्षणं प्रतिपादितमस्ति तथा तस्य अमूर्त्तत्वं स्वराविभिरप्राह्यत्वमपि विस्तरेण निरूपित मस्ति । तत्र औपनिषदिक 'मेति नेति' वादस्य प्रयोग पुनः पुनश्चकास्ति । 'अपवस्य परं नास्ति' इति सूचयति 'आत्मा' इति संज्ञापि अस्माभिः प्रकल्पितास्ति तदस्ति केवलं चैतन्यमयी अरूपिसत्ता । अस्मिन् प्रकरणे आत्मनः तर्कागम्यत्वं निरूप्य सूत्रकारेण द्विविधाः पदार्थाः तर्कगम्या अतर्कगम्या इति शेयस्य द्वैविध्यं महणं निरूपितम् । १. आयारो, ५।७। २. वही, ३।१४ । ३. वही, ५।१२२ । ४. वही, ५०३,४ । Jain Education International आचारांगभाष्य म जो मनोभूमिका में विचरण करते हैं उनकी दृष्टि में सार है- पदार्थों का संग्रह और उनका उपभोग प्रस्तुत अध्ययन में जिस 'सार' का वर्णन किया गया है वह उन व्यक्तियों की दृष्टि से है जो मनोभूमिका से पार पहुंच चुके हैं, जो आन्तरिक दृष्टि के धनी हैं और जो आत्मा का अनुभव कर विहरण कर रहे हैं। उस 'सार' के छह अंग हैं-अहिंसा, विरति, अपरिग्रह, स्वाध्याय, गुप्ति तथा उन्मार्ग वर्जन । I अध्यात्म-चिन्तन में सार तत्त्व है 'अमृतत्व'। उसके अनुसार जन्म-मरण की परंपरा सार नहीं है । जन्म-मरण का कारण है-मोह 'व्यक्ति मोह के कारण जन्म-मरण को प्राप्त होता है।' तीसरे अध्ययन में भी कहा है- 'मायी और प्रभावी व्यक्ति बार-बार जन्म लेता है।' आत्मानुभूति का सार है— जन्म मरण की परंपरा का विनोद | इस अध्ययन में रहस्यवाद का प्राचुर्य है। इसमें ध्यान सूत्रों का भी प्राचुर्य है । प्रस्तुत अध्ययन में युद्ध का भी निर्देश प्राप्त होता है । युद्ध मनुष्य की मौलिक मनोवृति है। उस हिसारणक युद्ध का आध्यात्मिकीकरण है पराक्रम का प्रतिष्ठापन / नियोजन । ब्रह्मचर्य का केवल उपदेश ही नहीं, किन्तु उसकी साधना के प्रयोग भी इसमें निर्दिष्ट है उन प्रयोगों से आहार संबंधी दृष्टिकोण बहुत स्पष्ट हो । जाता है तथा आसनों का महत्व भी हृदयंगम हो जाता है । वे आसन केवल शारीरिक सौन्दर्य या स्वास्थ्य के लिए ही नहीं, उनसे काम आदि वृत्तियों का भी परिष्कार होता है। प्रस्तुत अध्ययन में आत्मा का लक्षण प्रतिपादित है । साथ ही साथ 'आत्मा अमूर्त है', वह स्वर आदि के द्वारा अप्राह्य है' - यह भी विस्तार से निरूपित है। इस प्रसंग में औपनिषदिक 'नेति नेति' वाद का बार-बार प्रयोग हुआ है । 'वह अपद है— उसका बोध करने के लिए कोई पद नहीं है'यह सूक्त इस तथ्य को सूचित करता है कि 'आत्मा' यह संज्ञा भी हमारे द्वारा प्रकल्पित है। वह 'अपद' तो केवल चैतन्यमयी अरूपी सत्ता है। इस प्रकरण में आत्मा को तर्क से अगम्य निरूपित कर सूत्रकार ने शेय की द्विविधता का सहज निरूपण करते हुए दो प्रकार के पदार्थ बतलाए हैं-- तर्कगम्य तथा अतर्कंगम्य | ५. वही, ५।२१,३०, ६५, ११८, १२० । ६. वही, ५।४५, ४६ । ७. वही ५७५-८६ | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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